Tuesday, December 9, 2008

मुरादें

बृद्ध पिता ने बेटा को फोन किया, 'हम दोनों बारह बजे दिन में पहुंचेंगे।'
बेटा ने जवाब दिया, 'तो क्या मैं नौकरी छोड़ दूं।'
पिता स्तब्ध हो गए। कहा, 'नहीं, नहीं, बेटा नौकरी क्यों छोड़ोगे? ' कहो, 'कब यहां से चलूं। बस में चार घंटे लगते हैं।'
बेटा ने जवाब दिया, 'आप ऐसा चलें कि उस समय तक घर पर बच्चे स्कूल से आ जाएं।'

बस पर हम दोनों को नाती ने चढ़ा दिया। बिदा किया। टिकट कटा दिया। बस खुल गई। पहचाना रास्ता था। बचपन से इस रास्ते पर चलता रहा हूं। उस समय गांधी सेतु कहां था? छपरा से सोनपुर, सोनपुर से घटही गाड़ी से पहलेजा घाट। पहलेजा घाट से महेन्द्रू। जहाज पर गंगा नदी पार करना पड़ता था। कभी उफनती और मंद गति से बहने वाली गंगा के दर्शन। जहाज पर चढऩे के पहले, हम एक डुबकी गंगा में अवश्य लगा लिया करते थे।

कभी कुशासन काल में स्टेट बस बंद हो गई थी। सुशासन काल में स्टेट बस पुन: चालू हो गई है। नन स्टॉप बस पर नाती ने चढ़ाया था। देखते-देखते हाईवे से गंडक नदी पार कर हाजीपुर की परिक्रमा करते हुए गांधी सेतु पर बस आ गई। गाय घाट और पटना सिटी के पैसेंजरों को उतारते हुए बस पटना बाई पास होकर इनकम टैक्स के पास आ गई। वहीं उतरने को कहा गया था। कंडक्टर ने सामान उतारने में मदद की। पत्नी उतर चुकी थीं। सुखद आश्चर्य देखकर हुआ कि बेटा आ गए थे। हम दोनों की दिनों दिन विवशता और लाचारी बढ़ती जा रही है। इसी का खयाल कर बेटा ने सोचा होगा कि नहीं मुझे मुकाम पर रहना चाहिए। हमने सोचा, शायद रिक्शा पर बेटा ले जाएगा। पर नहीं, अपनी कार से आया था। कार पर बिठाकर ले गया।
हमारा एक सपना यह भी था कि हमारे बुढ़ापे में बेटे उस औकात के हो जाते कि वे अपनी गाड़ी से रिसीव करने आते और रेल गाड़ी पर चढ़ाने के लिए स्टेशन पहुंचाते। आज वही हो रहा है।
मन की मुरादें किसी की पूरी हों।' सपना साकार होता रहे तो खुशियों का अंबार लग जाता है।

4 comments:

MANVINDER BHIMBER said...

mata pita ki yahi to murade hai jo puri ho yai to sukhad lagta hai

Udan Tashtari said...

बच्चे ख्याल रखें..खूब तरक्की करें..नाम कमायें..और क्या चाहिये माँ बाप को!!!

नीरज गोस्वामी said...

बच्चें जब ऐसे निकल आयें समझो जीवन को अर्थ मिल गया...बहुत पुण्य से ऐसे बच्चे मिलते हैं ...
नीरज

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

सुखी जीवन के जो आधार बताये गये हैं उनमें आज्ञाकारी संतान भी एक है।