Friday, February 29, 2008

माहौल

इन दिनों
माहौल किसी भी क्षेत्र में
काम करने का नहीं रहा
कारन/प्रतिस्पर्धा/बदनीयती
स्वार्थपरता से कोई अछूता नहीं
कोई भी क्षेत्र हो,हर छोटा-बड़ा
चाहता है/परिश्रम कम हो
शीघ्रातिशीघ्र सारी भौतिक सुविधाएँ
वह हासिल कर ले
इसके लिए/हर हथकंडा
अपना सकता है
नैतिकता को ताखे पर
रख सकता है
फिर दूसरों की
चिंता क्यों हो?

Thursday, February 28, 2008

कोई बात नहीं

पावर संकट है/कोई बात नहीं

इनवर्टर हर कमरे में है

वह केंकियता है,तो जेनरेटर चलता

रात भर मच्छर सोने नहीं देता/कोई बात नहीं

ऑडोमॉस घिस लेता हूं

आल आउट है

कछुआ छाप भी जलता है

स्पीड में पंखा चलता है

मच्छर का नाना नहीं फटकता।

पानी दूषित हो गया/कोई बात नहीं

यों मिनरल वाटर चलता है

वाटर फिल्टर लगा लिया है

अक्वा फ्रेश का आर्डर दे दिया है ।

मन मुताबिक दहेज़ नहीं मिला/कोई बात नही

बहु को जला दूँगा/बेटे की शादी हो जायेगी

अपार बैंक बैलेंस है।

कोई बात नही।

छुपाने के रास्ते जग जाहिर हैं

गले में कैंसर हो गया है/कोई बात नहीं

पाइप से तरल पदार्थ लेता रहूँगा

भगवन भरोसे जीता रहूँगा

तापमान ऊपर चढ़ता जा रहा है/कोई बात नहीं

कूलर तो है ही

ए सी लगाने जा रहा हूँ

कहीं भी रहिये/कोई बात नहीं

मोबाइल ढूंढ लेगा

सिर्फ़ नम्बर चाहिए.

Monday, February 25, 2008

मजदूर

जन मजदूर
लेबर श्रमिक
कामगार
सारे के सारे
अपना श्रम
निर्धारित समय के लिए
बेचते हैं
बदले में मिलती है उन्हें
कुछ नगदी
जिनसे वे खरीदते हैं
दाल,चावल,आटा
नमक,तेल,सब्जी
और बिटिया के लिए
चिनिया बादाम
अपने लिए सुरती
पत्नी के लिए
एक मुट्ठा बीड़ी
* * *
घर पहुँचते ही
इन्तेजार करती
बीवी के हाथ में
थमा देते हैं पोटली
उधर से मिलता है
चूरा का भून्जा
नमक हरी मिर्च के साथ
ऊपर से एक लोटा पानी.

Sunday, February 24, 2008

निर्माण

निर्माणाधीन बहुमंजिली वसुंधरा

जहाँ-तहां कार्यरत श्रमिक

सबका लक्ष्य एक

इस गगनचुम्बी

एपार्टमेंट को

पूरा करना

अंजाम देते जाना

* * *

खेल पैसों का है

पेट का सवाल है

रोजी का सवाल है

हर श्रमिक श्रम बेचता है

अपने पेट के लिए

बाल-बच्चों के लिए

माँ-बाप के लिए

* * *

बांस-बल्लों पर खड़ा होकर

हथौड़ा करनी

छेनी से ठुक ठुक करते रहना

एक शकल

एक आकार का

रूप देते जाना

वसुंधरा की इस

बहुमंजिली इमारत को।

Friday, February 22, 2008

कोहरा

जाड़े की जवानी
पूस माघ के महीने
गेहूँ तोरी के
झूमते पौधे
ठिठुरती आलू की
हरी-हरी क्यारियां
विवशता में कोहरे से
गलबांही को मजबूर
भयभीत/कहीं
बलात्कार न कर जाए
पाला न झुलसा जाए
बचाव में जुटा
उसे बोनेवाला
धूल-धूसरित
ठंढ में ठिठुरता
उपचार में जुटा
कभी इन्डोफिल का छिड़काव
कभी अन्य उपचार
घबराया-घबराया
कभी कृषि विशेषज्ञों के पास
कहीं जमा पूँजी
डूब न जाए।

Sunday, February 17, 2008

वर्षों बाद

इस बार
फँस गया
भोगने को जाड़ा
सुदूर
उत्तर बिहार के
एक गाँव में
जहाँ
आज भी
बिजली नहीं
ढिबरी जलती है
रात में
एक लालटेन भी नहीं
घूरा
अलाव जलते ही
जुट जाते हैं
नंग-धड़ंग
छोट-छोटे बच्चे
घूरा के चारों ओर
सांझ सवेरे
उनके बदन पर
मैली-कुचैली
फटी
गंजी है.तो क्या?
मैं अपने घर में
बंद हो जाता हूँ
अपनी कोठी में
जनरेटर चालू होता है
रौशनी बहर भीतर
फैल जाती है
हीटर चालू होता है
लांग कोट पहन लेता हूँ
टोपी मोजा डाल
लेता हूँ
रिमोट के सहारे
आराम से देखता हूँ
चुनावी दंगल
बदलते चैनलों में
रंग बिरंगे प्रोग्राम।

Saturday, February 16, 2008

मेरा घर

घर में पाँव रखते ही
बड़ा अच्छा लगता है
मेरा कमरा/सबसे बड़ा कमरा
बाबूजी का कमरा/कहलाता है
बाबूजी इस कुनबे के
सिरमौर हैं
बूढ़े हो गए हैं
* * *
बीस वर्षों में यह घर बना है
चार कमरे हैं
चार सपूतों के निमित्त
बनाया था
बाबूजी ने अपने को
माइनस कर रखा था।
किंतु आज विडंबना
कुछ और है
हो कुछ और गया
सारे बेटों ने अपना-अपना
आशियाना महानगरों
बना लिया।
अपना घोंसला ही
अच्छा लगता है।
बड़ा सा यह घर
भांय भांय लगता है
हम्दोनों ही
घर में
जी रहे हैं।

Friday, February 15, 2008

मैं चुप रहूँगा

कल को धर्म पत्नी
संगिनी संग सहविस्तर
चलता रहा
इन्द्रियां शिथिल हो गयीं
मेरी भूख-उसकी भूख
चली गई,ख़त्म हो गई
वह अलग मैं अलग
* * *
उन दिनों उसका मुंह
नही खुलता था
औलादें देती रही
घर-आँगन संभालती रही
डर-सहमी रहती थी
अच्छा बुरा
सब झेलती रही ।
* * *
इस बुढ़ापे में
उससे झेला नहीं जाता
निर्भीक हो गई है।
अब डर काहे का
उसका मुंह खुल गया है
जैसे
घोंगा का मुंह खुल जाता है
अनाप-शनाप
बेधड़क बोलती रहती है
व्यंग वाण
छोड़ती रहती है
तार तार कर देती है
बच्चे देखते रहते हैं
सुनते रहते हैं
मुस्कराते रहते हैं।
हम दोनों के बीच कोई नहीं आता
मैंने अब सोच लिया है
तुम बोलो,खूब बोलो
मैं चुप रहूँगा।

Thursday, February 14, 2008

यथावत

जैसे मैं हूँ

वैसे ही मुझे रहने दो

अब क्या होगा

यह आमूल चूल परिवर्तन

अब तो जाने की घड़ी

आ गई है।

मुझे नहीं चाहिए

लंबा चौड़ा दीवान पर

मोटा गद्दा

मेरी मुश्किलें बढ़ जाती हैं

मैं तख्त पर सोता था

तख्त ही चाहिए

मेरे कमरा में एसी नहीं चाहिए

उसमें सोने की आदत नहीं

जुकाम पकड़ लेता है

आल आउट/कछुआ छाप

नहीं जलाओ

माथा पकड़ लेता है

मुझे फ्रिज का पानी मत दो

गला पकड़ लेता है

हीटर मत जलाओ

अलाव दो

लिहाफ दो

धूप में बैठने दो.

Wednesday, February 13, 2008

संकीर्णता

यों समय बदलता जा रहा है.फिर भी घर-परिवार की महिलाएं संकीर्णता और उंच-नीच के प्रति दोहरी नीति से उबार नहीं पायीं हैं।
उस दिन की बात है.परिवार के ही एक गूंगे लड़के ने घर से गिलास में पानी लाकर दलित जाती के मजदूर को दे दिया ,जिसके लिए केले के पत्ते पर खिचड़ी परोसी गई थी.खिचड़ी उसके लिए अलग से पकाई भी गई थी,जबकि चौके में उस दिन अच्छा खाना पका था.घर-परिवार के बर्तनों में बुढिया मालकिन के सामने बहु चाह कर भी वैसे मजदूर को घर की थाली में भोजन परोस कर नहीं दे सकती थी।
मालकिन जब बाहर निकलीं तो उनकी नज़र उस गिलास पर पड़ी,जिसमें उस मजदूर को पानी दिया गया था .वह दहारने लगीं की मेरे गिलास में उसे पानी किसने दिया।
उन्हें कहा गया की रामदेव पापा ने दिया है तो वह उस पर बिफर पड़ीं.तत्काल उस गिलास को उनहोंने फ़ेंक दिया और कहा की गिलास एक दलित ने जूठा कर दिया।
उस समय वह मजदूर चांपाकल पर अपना हाथ मुंह धो रहा था.घर की बूढ़ी मालकिन की आवाज उसके कानों तक गई.पलट कर उसने कहा,'माई जी!हममे गिलास मुंह नै लगैले छलों।'
फिर बारी में आम के पेड़ के नीचे बैठ कर उसने अपने बटुआ से सुपारी निकली,कतर कर मुंह में डाला और एक बीडी सुलगा कर पीने लगा।
जब शाम होने को आई तो घर के मालिक से उसने मजदूरी ली और अपने घर की ओर चल पड़ा.उसे आठ किलोमीटर की दूरी तय करनी थी.ताबड़तोड़ साइकिल चलाता गया।
वह मजदूर हफ्ता में एक दिन अभी भी आता है.उसके झोला में लोटा रहता है.उसमें वह पानी टू स्वाभिमान से पी लेता है.पर उसे खाने के समय केले का पत्ता लेन को कहा जाता है तो वह मन ही मन सोचता है,'क्या मैं इस घर की थाली में खाने का अधिकारी नहीं हूँ.'

Monday, February 11, 2008

हक्का-बक्का

नॉन-स्टॉप बस एक जगह रुकी.कंडक्टर ने समझा कोई हजारीबाग की सवारी होगी.बस के भीतर आगे एक महिला,पीछे से उसका पति जैसा जवान सफ़ेद कपडों में बढ़ा.कंडक्टर ने पूछा,कहाँ जाना है,उसने पास के किसी गाँव का नाम लिया.कंडक्टर ने कहा,उतरिये..यह एक्सप्रेस बस है.तुरंत उस युवक का तेवर बदला और उसने कहा,बदतमीज!पहचानते नहीं.मैं स्टाफ हूँ.बड़ा हाकिम हूँ.चुपचाप बैठो.ड्राईवर से कहा,बस बढाओ भाई।

कंडक्टर हक्का-बक्का.उसकी बन्दर घुड़की पर ही उसे लगा कि हाथापाई होगी.कंडक्टर अपने ढंग से उसका प्रतिवाद करता रहा.सारे मुसाफिर दोनों की बातें सुनते रहे.किसी मुसाफिर ने उनके बीच आने का,इस झमेले को छुड़ाने की कोशिश नहीं की.सारे मुसाफिर मूक दर्शक बने रहे.कंडक्टर मेरी बगल में आकर बैठ गया.मैं भी चुप रह.एक दो और पैसेंजर से उसने भाडा लिया.टिकट नहीं दिया।

इस बीच झपकियाँ लेते-लेते मैं लंबी नींद में चला गया.मेरी आँखे खुलीं तो जहाँ वह महिला बैठी थी,वह नहीं दिखी.मैंने समझा वह जुझारू,दबंग आदमी,शेखीबघारने वाला उतर गया होगा.कंडक्टर मुँह बंद कर चुका था।

फिर मैंने कंडक्टर से पूछा,"क्या आपने उन दोनों से भाड़ा मांगने का जुर्रत उठाया.उसने कहा,"नहीं"।

मैंने पूछा."क्या वह आपका स्टाफ सही में था.""नहीं कह सकता."उसका जवाब.आगे उसने कहा,"ऐसा हजारीबाग की तरफ होता,तो विस लोगों से पैसेंजर भी दो हाथ देख लेते हैं।"

फिर आज की अराजकता की बातें हुईं.कंडक्टर उनके उतर जाने के बाद,कमीज झाड़कर,अपनी शेखी बघारने लगा.

Sunday, February 10, 2008

नोक-झोंक

कुमुद बाबू के यहाँ नाश्ता कर के राघव जी से मिलने गया.संयोग अच्छा था,घर पर मिल गये.अपनी उपलब्धियों की चर्चा करते हुए, सद्यः प्रकाशित 'इन्द्रधनुष' कविता संग्रह उन्हें देखने को दे दिया.वे उलटते-पलटते रहे.मैं अपनी बातें उनके कानों में डालता रहा।
बात आई कि कैसे यहाँ के साहित्यकारों के हाथों में मेरी यह किताब पहुँचेगी और उस पर मेरी मौजूदगी में चर्चा हो जैसा आज तक कहीं नहीं हो पाया हो।
राघव जी ने कहा कि आप कल का समय रखें.आठ प्रतियाँ 'इन्द्रधनुष'की रख जाएँ.कल शाम को पांच बजे अपने यहाँ ,अपने लोगों को बुलाऊंगा,आपके सामने किताबें उन्हें मिल जायेंगी और एक मिलना-जुलना हो जाएगा।
ऑफिस जाने का उनका वक़्त हो रहा था.चलते-चलते मैंने उनसे 'संवदिया'के संपादक भोला पादित प्रणयी के ठौर-ठिकाना के बारे में पूछा.उनहोंने एक संकेत दिया,जयप्रकाश नगर के पश्चिम सीमा पर ही उनका छोटा सा निर्माण होगा,एक झोंपड़ी होगी।
राघव जी के घर से निकलने पर मुख्य सड़क पर ही एक रिक्शा मिल गया.रिक्शा चालक से जहाँ जाना है,उस स्थान का ब्योरा बता दिया।
वह चलने को तैयार हो गया.अक्सर रिक्शा पर बैठने के पूर्व मैं हर रिक्शा चालक से भाड़ा तय कर लिया करता हूँ ताकि रिक्शा से उतरने पर भाड़ा को लेकर नोक-झोंक न हो रिक्शा चालक के साथ नहीं हो.चालक ने कहा मुनासिब भाड़ा आप दे देंगे.बैठिये।
मैंने कहा,जिनके यहाँ जा रहा हूँ,वे जो कह देंगे,वही मुनासिब भाड़ा होगा.नई जगह पर किसी भी तलाश में आगे-पीछे कुछ हो जाता है.सही लोकेशन पर पहुँचने में वही हुआ.घरवासी,मानी भोला पंडित प्रणयी के डेरा के आगे रिक्शा से उतर रहा था,तब तक प्रणयी आ गए.उन्होंने कहा ,आप इन्हें पंद्रह रुपये दे दें.चालक अड़ गया कि मुनासिब भाड़ा मेरा अठारह रुपये होता है.नोक-झोंक चलने लगा.मैं पंद्रह पर अदा रहा,क्योंकि साफ वह कह चुका था,घरवासी जो कहेंगे वही मुनासिब भाड़ा होगा।
इस नोक-झोंक के बीच चालक ने कहा,'कुछ मत दीजिए.'मैंने कहा,'ऐसा kyon?'मैं और प्रणयी पक्षधर थे कि चालक को पंद्रह ही दिए जाएँ.उस समय मैं रिक्शा चालक को आप कहना भूल गया.जैसा कि मुख्य मंत्री का एलान है कि मजदूर वर्ग को तुम न कह कर.आप कहा करें.आदतन मजदूर को तुम ही कहा जाता रहा है.अंत में झख मार कर चालक ने पांच का सिक्का वापस किया,क्योंकि उसे दस के दो नोट दे चुके थे।
रिक्शा चालक लौटते हुए कुछ अनाप-शनाप बातें बोलता चला जा रहा था कि मजदूर को लोग सही मजदूरी लोग नहीं देंगे.और अपनी मौज-मस्त में सैकड़ों खर्च कर देंगे.उनका गरीबों के साथ ऐसा ही चलता रहेगा।
मैं सुनता रहा.मेरा विवेक जगा.अपने से पूछना चाह,चालक को उसके मन मुताबिक अठारह दे देता,तो इतना वाकयुद्ध नहीं होता.मेरे लिए तीन रुपये अधिक देने से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं.आये दिन कभी-कभी जिद्द और प्रतिस्थामूलक जद्दोजहद हो ही जाता है.

Wednesday, February 6, 2008

परिताप

ब्रह्मवेला,
दरवाजा खोलता हूँ
पोर्टिको का हेडलाइट
बुझाता हूँ
पूरब दिशा की ओर
निहारता हूँ
पौ फट रहा है
परिसर के
आम,शीशम,कदंब
आंवले के पेड़
अभी जगे नहीं हैं
आंवले की पत्तियां
मुंदी-मुंदी हैं
* * *
पर
ये सारे वृक्ष
आज जवान हो गए
और मैं बूढा हो गया हूँ
* * *
उन दिनों
जब वे बिरवे थे
पोतियों के नन्हें-नन्हें हाथों ने
इन्हें सींचा था
* * *
अब वे पराये घर
चली गयी हैं
यहाँ से टूट गया
उनका
नेह-नाता

Tuesday, February 5, 2008

मुश्किलें

हर जगह
मुश्किलें बढ़ती जाती हैं
जीना हरम हो गया है
खतरा डेग-डेग पर
पाँव पसरे बैठा है
निगल जाने को।
सच भीड़ देख कर
जाम देख कर
कलेजा काँप जाता है।
* * *
रेलगाड़ी में भीड़
मंदिर में भीड़
पोस्ट ऑफिस में कतारें
बुकिंग काउंटर पर भीड़
सिनेमा टिकट लीजिये
धक्का-मुक्का
वैध-अवैध
ए सी स्लीपर में भी भीड़
उतरने के समय
निकालना मुश्किल
कहीं गिरे
तो गए काम से
बूढें हैं तो घर में रहें
अकेले सफर न करें।

Monday, February 4, 2008

असमंजस

समझ नहीं आता
क्या करूं
क्या उम्रदाराजों को
कन्दराओं में शरण
लेनी होगी
या कि उन्हें
कदम-ब-कदम
युवाओं के संग
चलना होगा
* * *
फिर आज
बूढों को खारिज करने की बातें
क्यों उठती है?
तुम भी रहो वे भी रहें सामंजस्य
स्थापित करो।
१२.१०.०७

Sunday, February 3, 2008

दम-ख़म

मौत कोई चाहता नहीं
मैं छियासी में चल रहा हूँ
जन्मदिन पर लोगों ने
कहा-शतायु होवें
काम करता हूँ
घर-परिवार कहता है
बाबूजी!बंद करें
अपना धंधा
आराम कीजिए
***********
थक जाता हूँ
पस्त हिम्मत भी होता हूँ
फिर अहले सुबह
दम-ख़म से लग हूँ जाता
ब्लड प्रेशर नहीं है/डायबेटिक नहीं हूँ
आहार निरामिष है
आराम से डायना ब्रांड की
ला रंग की लेडीज साइकिल
चलाता हूँ
राह चलते उँगलियाँ
उठती रहती हैं
०९/१०/07l