क्या हो गया आज के आदमी को!
बाहर कुछ भीतर कुछ
करता कुछ बोलता कुछ
समझता कुछ
यह अन्तर क्यों!
आदमी खतम हो गया!
नहीं, कौन कहता है!
हर कोई कहता है
अपने को छोडक़र, कहता है।
मैं ठीक हूं, दुनिया बदल गयी।
नहीं, दुनिया जगह पर है
फिर आदमी!
आत्मघाती हो गया / विश्वासघाती हो गया
पीठ पीछे छूरा भोंकता है।
क्या यही आदमी है!
हां आज का
आदमी यही है!
उसे कौन बदलेगा!
भगवान बदलेगा!
भगवान है कहां!
क्या वह सदेह है!
नहीं, निराकार है।
फिर, निराकार तो कुछ नहीं कर सकता!
यह कहना गलत है कि निराकार कुछ नहीं कर सकता।
तो क्या ठीक है!
भीतर का आदमी, आदमी को बदल सकता है।
समरस, कविता संग्रह की पहली कविता
Wednesday, December 3, 2008
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