Wednesday, April 14, 2010

शर्मिंदगी

 

   शंभू बाबू को जानकारी मिली कि उनके बेटे की पोस्टिंग बिहारशरीफ हो गई है, तो उनहें खुशी हुई। इस मानी में कि उनके पिता पुलिस विभाग में एस.सी. के पोस्‍ट पर अस्‍सी बरस पहले बृटिश शासनकाल के जमाने में आये थे। उस समय शंभू बाबू की उम्र आठ वर्ष की थी। पर उन दिनों की कुछ प्रमुख घटनाओं उनके दिमाग में तरोताजा थीं जिन्‍हें आज 2004 में उन स्‍थलों की तलाश में वे गये, तो सबकुछ बदला-बदला दीखा। जैसा कि जिस क्‍वार्टर में अस्‍सी बरस पहले वे माता-पिता के साथ रह चुके थे, उसकी पहचान नहीं कर पाए। दूसरी याद में मखदूम साहब की दरगाह का परिवार उन्‍हें बदला-बदला दीखा। बचपन की आंखों से शंभू बाबू ने जैसा देखा-सुना था, आज का मंजर उन्‍हें कुद और ही दीखा। मकबरा में प्रवेश करने के पहले रास्‍ते के दोनों तरफ छोटे-बड़े कब्र भरे पड़े थे।

   भीतर दरगाह में प्रवेश करने के बाद वहां के रस्‍मों-रिवाज के मुताबिक उन्‍हें पहले गोशुल (हाथ-पांव धोने के लिए नल पर जाना पड़ा।)

   गोशुल करके मखदूम साहब के कब्र के पास आने पर वहां ड्यूटी पर तैनात एक शख्‍स ने दोआ मांगने के लिए तौर तरीकों की उन्‍हें जानकारी दी। पर शंभू बाबू लाचार से दिखे क्‍योंकि आज उनकी उम्र तो नब्‍बे में चल रही है।

   दोआ मांगने के नाम पर शंभू बाबू ने कहा, मैं क्‍या मांगू।. खुदा ने हमें सबकुछ से भरपूर कर दिया है।

   जिस रिक्‍शा से बेटे के बंगले से मखदूम साहब के दरगाह पर गए थे उसी रिक्‍शे से शंभू बाबू लौट आये। चपरासी उन्‍हें पहुंचाकर चला गया। लौटने तक दोपहर हो गया था। गरम-गरम हवाएं चलने लगीं। मई का महीना चल रहा था। बिजली चली गई थी। उन पर हाथ का बेना बहू झलने लगी। फिर थोड़ी देर बाद बहू ने खाना खिला दिया।

   शंभू बाबू ने बहू से कहा, 'जरा बेटा से कहो, बाबूजी कल चले जाएंगे। वे उनके बैंक में आना चाहते हैं।'

   शंभू बाबू के कहने के मुताबिक बहू ने फोन किया। पर उधर से जवाब मिला, 'बाबूजी को कहो आराम करें। तपिश में बैंक कहां आएंगे!'

   पर शंभू बाबू को यह बात लग गई। उनका छोटा भाई जो इलाहाबाद बैंक में चालीस बरस पहले पटना की नई शाखा के मैनेजर के बतौर उनकी पोस्टिंग हुई थी। उस समय शंभू बाबू को छोटे भाई ने बैंक में बुलाया था, तो वहां जाने पर भाई ने अपने चेम्‍बर में उन्‍हें बिठाया था। बारी-बारी से उनके आतहत के सारे स्‍टॉफ को उन्‍होंने उनसे परिचय कराया था। तो बेटा ने टका-सा जवाब क्‍यों दे दिया और अपने बूढ़े बाप को बुलाकर उन्‍हें क्‍या शर्मिंदगी का एहसास होता। इस कारण तो नहीं ऐसा कुछ हुआ है।

   शंभू बाबू मन ही मन झुंझला उठे। अपने बुढ़ापे के शरीर के डील-डौल पर विचार करने लगे। सोचने लगे कि मैं थोड़ा झुक गया हूं। अंजर-पंजर ढीला ढीला सा हो गया है। झुर्रियां पड़ गई है। इस कारण से तो बेटा ने अपने बैंक में उन्‍हें नहीं बुलाया और इधर शंभू ने सोचा था कि वह अपने चेम्‍बर में बिठाएगा और बारी-बारी से अपने स्‍टॉफ से परिचय कराएगा, जैसा कि उनके भाई ने चालीस बरस पहले कर दिखाया था।

   शंभू बाबू के सोचने का तार टूटा नहीं था। वे मुंबई छोटे बेटा के यहां गए थे। एक दिन ऐसा हुआ कि वे ड्राइंगरूम में बैठकर अखबार पढ़ रहे थे। पोती ने उन्‍हें आकर कहा, 'बाबा आप अंदर के कमरे में चले जाएं। कुछ लोग पापा से मिलने आ रहे हैं।'

   शंभू बाबू का ताना-बाना ऐसा ही कुछ चल रहा था। बिजली आ गई। पंखा चलने लगा। उन्‍हें नींद आ गई।

बहतर वर्ष पहले की एक ग्रामबाला

   मैं अभी अठासी के उत्तराद्ध मैं हूं। कल तक मैं नकारता रहा, कोई मुझे बूढ़ा ना कहे। किन्‍तु अब एहसास हो रहा है। एक सच को क्‍यों नकारता आया। शायद इसलिये तो नहीं कि मेरे दिल में बुलन्‍दी है। बराबर लिखना-पढ़ना चलता रहता है।

   जिन दिनों की कर रहा हूं। उस समय मैं अपनी दादी के साथ रहता था। चम्‍पानगर में। सुखराज राय हाई स्‍कूल, नाथनगर भागलपुर का सातवां क्‍लास का विद्यार्थी था। 1937 ई का जमाना था। अंगिका मैं 'नैना भुटका' या 'नूनू' छोटे बच्‍चों को कहा जाता है। दादी ने मुझे कहा, 'रे नूनू, रामफल गंगोता को बुलालाओ। मोहनपुर दियारा में दादी की जमीन गंगशिकस्‍त हो गई थी, वह बाहर हुई थी। रामफल खेती का देखभाल करता था। फतेहपुर में नाव मिलती थी। रविवार का दिन था। सूर्योदय के पहले दादी ने जगा दिया। चैत का महीना था। बासन्‍ती बयार चल रही थी। पौ फट रहा था। गंगा नदी तट पर मैं पहुंच गया। तट पर नाव लगी थी। नाव पर बैठ गया। इक्‍के-दुक्‍के लोग नाव पकड़ने आ रहे थे। उधर पूरब दिशा में मेरी नजर गई। सूरज की लाल लाल किरणें प्रवहमान गंगा के निर्मल जल पर झिलमिलाती देख रही थी। नाव खुलने-खुलने पर थी। तभी एक ग्रामबाला बेतहाशा दौड़ती आ रही थी। उसके सिर पर छिट्टा था। शायद घास लाने के लिए निकली थी। उस समय उसे अपने शरीर बदन के कपड़ों की कोई सुधि नहीं थी। उसका रूप रंग उलझा हुआ बाल। साड़ी में लिपटी, खुला बदन, फड़फड़ाता आंचल, अंगिया न ब्‍लाउज। बदन में उठान हो चुका था।

   बहतर वर्ष बाद। उसकी वह सूरत, उसकी खूबसूरती, जो मैंने देखी थी। मेरे शरीर में उस समय कोई काम वासना का संचार नहीं हुआ था। पर मेरी आंखों के आगे आज भी वह दृश्‍य, कभी-कभी छा जाता है, तो बड़ा अच्‍छा लगता है। उस खूबसूरती का बखान आज इस उम्र में कर रहा हूं। आज भी मेरी मनोदशा वही है। आपको कैसा लग रहा है।. 

Monday, April 5, 2010

ओछापन

ओछापन

   वे डायनिंग टेबुल पर बैठे थे। पोती से पूछा -'नाश्‍ता क्‍या है?' बना कुछ नहीं है, कार्न फ्लेक देती हूं।' उनने कहा 'नहीं, सुनकर बुखार लग जाता है।'

   उधर से बेटा दौड़े आये। उनसे पोती ने जोड़ दिया बाबा कार्न फ्लेक नहीं लेंगे। 'ब्रेड है।' 'हां।' वही दे दो।

   बटर लगा दो ब्रेड का स्‍लाइस आगे रख दिया गया। फिर कच्‍चा रसुगुल्‍ला परोसा गया, काला जामुन भी।

   बात आई दूध की! बाबा ने कहा, 'चार दिनों से दूध लेने का मौका नहीं मिला! इस पर बाबा की बात को लल्‍लू ने काटते हुए कहा, 'उसी दिन न दिया था।'

   बाबा चुप। बोर्न भिटा युक्‍त गरम-गरम दूध आगे आया।

   उनकी धर्मपत्‍नी, अम्‍मां, पास ही बैठी थीं। 'आपको क्‍या हो गया है। ऐसी बोली क्‍यों? रोज गीता पढ़ते हैं, रामायण का पाठ करते हैं। माला ठक ठकाते हैं। वाणी में मिठास नहीं आई! सब बेकार।

   बाबा चुपचाप अपने कमरे में चले गए। कहा कुछ नहीं।

   अन्‍तर्मन की आवाज सुनी। 'तुमको क्‍या हो जाता है। परिवार में तुम्‍हारी गरिमा है। ओछापन जाता नहीं। अम्‍मां की अनुसुनी न करो। तुमको नसीहत दी जायगी।.