Wednesday, December 31, 2008

मेरा संदेश

2009 के दौरान
हमारा आपका रिश्ता
नया-नया रिश्ता
बरकरार रहे
प्रगाढ़ होता चले
यही शुभकामना है

आपने क्या किया

इस घड़ी
जहां खड़ा हूं
अंधकार से घिरा हूं
कुछ सूझता नहीं
कुछ दीखता नहीं
आवाजें आ रही हैं
पहचाने स्वर हैं
मैं पूछता हूं
शून्य में पूछता हूं
क्या कहा?
आपने क्या किया?
मैंने कुछ नहीं किया
सबूत पेश करना होगा
किसके आगे सबूत
जो मेरा जन्मा है
मेरे रक्तबीज का अंश है
सबसे बड़ा सबूत
तो वही है
आगे कुछ कहना
निरर्थक है
तू-तू मैं-मैं
बखिया उघारने
मुझे नंगा करने से
क्या कुछ /हासिल होगा
इस जर्जर काया में
बचा क्या है?
तो! मैं चलता हूं
निकल जाता हूं

Monday, December 29, 2008

फास्ट लाइफ

आदमी की जिन्दगी
आपाधापी की जिन्दगी
भागदौड़ की जिन्दगी
कहां लिए जा रही है
क्या होगा!
महाकाल क्या चाहता है!
विनाश, महाविनाश
सबका विनाश
तब क्या होगा
कौन बचेगा! कौन भोगेगा! !
बचा-खुचा सुकर्मी
दूध का धोया

X X X

फास्ट लाइफ का क्या मतलब
भागते जाओ, रूको नहीं
सांस नहीं लो
छांव तले आराम नहीं करो
विश्राम नहीं करो
महानगरों के निवासी
रूको
गाड़ी की गति बढ़ाओ नहीं
एक झटके में चले जाओगे
आगे मौत मुंह बाये खड़ी है
तुम्हें खा जायेगी
तुम्हारे मासूम-बच्चे! बिलखते रह जायेंगे
उन्हें प्यार कौन देगा!

Saturday, December 27, 2008

कुछ करना है

दोस्तो!
हम पल दो पल के
साथी हैं
तो करना क्या है
कुछ सोचा है
कुछ विचारा है
कभी गौर किया है
अब तक
कितना खोया
कभी आंका है
वक्त
इंतजार नहीं करता
एकजुट होकर
अंजाम दें
जो करना है
बहुत हो चुका
कीचड़ न उछालें
घात न करें
इसी में
सब का भला है
सबके भला में
आपका भला है

Friday, December 26, 2008

आखिरी तमन्ना

तुम्हारे पापा-मम्मी ने
तुम्हारा नाम श्रेया रक्खा
श्रेया से तुम सूम्मी हो गयी
घर-आंगन में
तुम दौड़ती-फिरती रही
सुना है, तुम जा रही हो
क्यों?
तुम्हारे मां-बाप ऐसा चाहते हैं
तुम्हारे जाने के बाद
एक शून्यता होगी
उसे अम्मां कैसे झेलेंगी
कैसे भरेंगी
उनकी गोद सूनी हो जायगी
उनका मन उखड़ा-उखड़ा रहेगा
और मेरा भी वैसा ही
सुबह-सवेरे मेरे कमरे में
कौन आयेगी
मीट-सेफ कौन खोलेगी
गोलक में पैसा रोज
कौन डालेगी
अब छुहारा का डिब्बा
खाली नहीं होगा
ब्रेड और केक में
दहिया लग जायेंगे
पूजा के समय
मेरी गोद में
साधिकार कौन बैठेगी
प्रतिमा को
आरती-अगरबत्तियां
कौन दिखायेगी
मेरी रिक्तता कैसे भरेगी!
तिपहिया साइकिल का क्या होगा
मेरी साइकिल की / बेबी-सीट
पर कौन बैठेगी
बगिया के बिरवे
तुम्हारी प्रतीक्षा में
मुरझा जायेंगे
पानी कौन पटायेगी
और अम्मां
उन ख्यालातों में
डूबती-उतराती रहेंगी
गुडिय़ा जैसी, मोम जैसी
सूम्मी को
रात-रात भर
गोद में लिए बैठी रहती थीं
पलकों में नींद नहीं
आती थी
मनौतियां मनाती थीं
सूम्मी चंगी हो जा
हंसने लगे
मुस्कराने लगे

x x x

तुम्हारा आना-जाना
बड़े पापा-मम्मी के घर
बना रहेगा
पर अम्मां नहीं रहेंगी
मैं नहीं रहूंगा
और तब
तुम पर क्या बीतेगा
बेटा।़ संसार में यही होता है
जो आता है, वह जाता है
उसकी स्मृतियां
आती हैं-जाती हैं

x x x

तुम जाओ
अम्मा विदा करेंगी
मैं विदा करूंगा
बड़ी अम्मां बिलखेंगी
खुशी-खुशी जाओ
खूब पढऩा
बड़ा आदमी बननायही मेरी आखिरी तमन्ना है।

Wednesday, December 24, 2008

क्या करूं

एक अहम प्रश्न
अब क्या करूं?
करता रहा / चलता रहा
थका नहीं / हारा नहीं
रूका नहीं
शाबासी नहीं मिली
ठकुरसुहाती मिली
छला गया / भरमाया गया
फिर भी डटा रहा
बेबसी में जीता रहा
चमक-दमक भी देखी
आंखें चौंधिया गयीं
फिर भी दौड़ता रहा
हारा नहीं
तमन्नायें थीं
कुछ पूरी हुई / कुछ बाकी हैं
उम्मीदें बंधी हैं
पूरा करूंगा
खिलाफ में / मोहरे बिछे हैं
परवाह नहीं
हिम्मत बुलंद है
कुछ कर गुजरना है
जो भी गंवाना पड़े
अंगूठा दिखलानेवाले / दिखलाते रहें
व्यंग्य-वाण छोड़ते रहें / ठिठोली करते रहें
बेअसर हूं
जवाब क्या दूं / क्यों दूं
हमें कुछ करना है / कर रहा हूं
समय की रेत पर / पदचिह्न छोड़ जाऊंगा

Monday, December 22, 2008

मन

हाथ-पांव
आंख-कान
किसके इशारे पर
चलते हैं
हुक्म किसका
चलता है
इन्हें क्रियाशील बनाने में
एक्टिव रोल
किसका होता है
क्या मन का

x x x

मन दिखाई नहीं देता
वह पारदर्र्शी नहीं
पर मन
सबको नचाता है
इन पर कंट्रोल
मन का होता है
मन के पास
अज्ञात-सूक्ष्म
कार्डलेस तरंग है
जो
ध्वनि, विद्युत से
अधिक शक्तिशाली है।

Saturday, December 20, 2008

सीमा

हर इंसान
जब सीमा लांघता है
विवाद छिड़ जाते हैं
हर को
सीमा के अंदर रहना चाहिए

x x क्ष

दो राष्ट्रों के बीच
सीमा विवाद रहता है
सीमा की रक्षा
करनी पड़ती है
झड़पें होती रहती हैं
चौकन्ना रहना पड़ता है
दुश्मन ताक में रहता है
औचक हमला कर बैठता है

x x x

हर इंसान
शांति चाहता है
पर बाहर-भीतर
वह शान्त कहां रहता है
आखिर
वह चाहता क्या है?

Wednesday, December 17, 2008

तन्हाई

तन्हाई / एक प्रेमी का

तन्हाई में
रात-रात भर
करवटें बदलता रहा
आंसू से तकिया
भिंगोता रहा
बात कुछ नहीं थी
बेबात मासूका
रूठ गई
छान पगहा तुड़ाकर
चली गई
फोन करता हूं
रिंग होता रहा
फोन उठाती नहीं
बेबस हूं / लाचार हूं
कुछ सुहाता नहीं
कुछ भाता नहीं
आज कोर्ट की नोटिस मिली
पढ़ते ही गस खा गया
यह क्या हो गया
तलाक की नोटिस है
शेष जिन्दगी का
क्या होगा?
कहां जाऊं
क्या डूब मरूं!
समाज क्या कहेगा
कैसा नामर्द था
डूब मरा।

तन्हाई / एक प्रेमिका की

आंखें बंद
दीखता है
कुछ साफ
वैसा कुछ हो गया
बेमिसाल
संभावना के परे
हैरत में हूं
बखान ब्यौरा
सुनाकर क्या होगा
जग हंसाई होगी
पहाड़-सी जिन्दगी
तन्हाई में
अब कैसे कटेगी?

तन्हाई / एक बूढ़े की

वृद्धाश्रम
8 x 8 का कमरा
शेष जिन्दगी यहीं कटेगी
आनन्द है
भाई-बंद हैं
मिलना-जुलना होता रहता है
मुस्कान लिए सलाम-बंदगी होती है
आदान-प्रदान कुशल क्षेम का होता है
पर आधी रात को
नींद टूट जाती है
साफ दीखता है
पहले पत्नी गई
बड़ा बेटा प्लेन क्रैश में गया
दूसरा कैंसर से चला गया
उसके इलाज में
घर गया
तीसरे का संरक्षण था
वह बीबी-बच्चों के साथ
अमरीका चला गया
पांच वर्षों के लिए
खेवा खर्च मेरे लिए
आश्रम में जमा कर गया
भार मुक्त हो गया
गंगा नहा गया / हाथ झाड़ गया
टूट चुका हूं
तन्हाई में जीता हूं
मौत हाथ में नहीं
आबाद रहे यह आश्रम
मेरा नया घर।


समरस कविता संग्रह से उद्धृत

Tuesday, December 16, 2008

हाय रे पानी

हाय रे पानी!
तुम्हारे बिना सब सूना
आदमी बेहाल बेकल
झगड़ा छिड़ गया
सर फूट गया
धूप, हवा, पानी
सबकी अमानत है
सृष्टि की देन है
एक का नहीं
सबका है
रोटी तो
आग पर सेंकी जाती है
पानी पर
रोटी गल जाती है
धैर्य से काम लो
रास्ता निकालो
पानी सबको चाहिए
इसके बिना कोई रह नहीं सकता
पानी का दोहन नहीं करो
यह राष्ट्रीय संपदा है
इस पर सबका अधिकार है
समानता का युग है
मिल बैठकर रास्ता निकालो
सभी नदियों को जोड़ो
अजस्र धारा बहाओ
पानी सबको मिले - सबका काम चले
सिर्फ कावेरी के लिए
क्यों झगड़ते हो
रोटी बांटकर खाओ

समरस कविता संग्रह से उद्धृत

Monday, December 15, 2008

शब्द

शब्द
एक सेतु है
संप्रेषण है
अमर है
व्योम में
सदा विद्यमान है
एक जाल है
जंजाल है
फंसाता है
उबारता है
रक्षक है
भक्षक है
अलंकृत करता है
नंगा करता है
अभिशाप है
वरदान है।

समरस कविता संग्रह से उद्धृत

Sunday, December 14, 2008

अम्मां-मां

ममतामयी करुणामयी
दयामयी
अम्मां-मां-मां
बेटे की अम्मां
बहू की अम्मां
पोते-पोतियों की अम्मां
मेरी, तेरी, सबकी अम्मां
क्या है उनमें
हिमालय की ऊंचाई है
सागर की गहराई है
प्यार भरा है
दुलार भरा है

x x x

अम्मां इस घर में
पचास की दशक में आयीं
उस समय वह
किसी की बहू थीं
घर में सास-ससुर का संरक्षण था
ननदें थीं
दाबन में रहना था

x x x

और आज
इस शती के अंत में
अम्मां के आगे-पीछे
बहुएं हैं बेटे हैं
पोते-पोतियां हैं
घर-आंगन भरापूरा है
वह जग-जननी हैं
जीवन-यज्ञ में
आहुतियां देती रहीं
अपने को होम दिया
मन की पीड़ा
मन की व्यथा वेदना
कहें तो किससे
नीलकंठ बनकर
गरलपान करती रहीं
दोनों हाथों लुटाती रहीं
प्यार, दुलार, पुचकार
अम्मां-मां-मां।

समरस कविता संग्रह से उद्धृत

Saturday, December 13, 2008

ये बच्चे

ये बच्चे
भावी पीढ़ी की
अमानत हैं
धरोहर हैं
देश की
पढ़ते हैं
कहां
जहां
कुछ घंटों की
प्रात: कालीन
उनकी शाला है
सच कहें तो
चरवाहाशाला है
वहां पढऩे आते हैं
बच्चे खाली पेट
शाला से छूटते ही
घर में रूखा-सूखा
कुछ खा कर
जुट जाते हैं
चरवाही में
गोबर बटोरने में
बकरियां चराने में
भाई बहनों को
संभालने में
उनका बाकी समय
ऐसे ही गुजर जाता है

समरस कविता संग्रह से उद्धृत

Thursday, December 11, 2008

वक्त

आदमी
वक्त का
गुलाम है
वक्त
ठहरता नहीं
वक्त के साथ
चलना पड़ता है
वक्त
बेरहम होता है
वक्त ने साथ दिया
तो इंसान
कहां से कहां
चला जाता है
वक्त ने साथ
नहीं दिया
तो धूल चटा देता है
वक्त की पहचान
मुश्किल है
जिसने पहचाना
पौ-बारह है
जिसने कोताही की
गया काम से
सब नहीं / कोई-कोई
वक्त को / मुट्ठी में
किये रहता है
उसके आगे-पीछे
लोग लगे रहते हैं
सिर आंखों पर
उठाये रहते हैं।

समरस कविता संग्रह से उद्धृत

Tuesday, December 9, 2008

मुरादें

बृद्ध पिता ने बेटा को फोन किया, 'हम दोनों बारह बजे दिन में पहुंचेंगे।'
बेटा ने जवाब दिया, 'तो क्या मैं नौकरी छोड़ दूं।'
पिता स्तब्ध हो गए। कहा, 'नहीं, नहीं, बेटा नौकरी क्यों छोड़ोगे? ' कहो, 'कब यहां से चलूं। बस में चार घंटे लगते हैं।'
बेटा ने जवाब दिया, 'आप ऐसा चलें कि उस समय तक घर पर बच्चे स्कूल से आ जाएं।'

बस पर हम दोनों को नाती ने चढ़ा दिया। बिदा किया। टिकट कटा दिया। बस खुल गई। पहचाना रास्ता था। बचपन से इस रास्ते पर चलता रहा हूं। उस समय गांधी सेतु कहां था? छपरा से सोनपुर, सोनपुर से घटही गाड़ी से पहलेजा घाट। पहलेजा घाट से महेन्द्रू। जहाज पर गंगा नदी पार करना पड़ता था। कभी उफनती और मंद गति से बहने वाली गंगा के दर्शन। जहाज पर चढऩे के पहले, हम एक डुबकी गंगा में अवश्य लगा लिया करते थे।

कभी कुशासन काल में स्टेट बस बंद हो गई थी। सुशासन काल में स्टेट बस पुन: चालू हो गई है। नन स्टॉप बस पर नाती ने चढ़ाया था। देखते-देखते हाईवे से गंडक नदी पार कर हाजीपुर की परिक्रमा करते हुए गांधी सेतु पर बस आ गई। गाय घाट और पटना सिटी के पैसेंजरों को उतारते हुए बस पटना बाई पास होकर इनकम टैक्स के पास आ गई। वहीं उतरने को कहा गया था। कंडक्टर ने सामान उतारने में मदद की। पत्नी उतर चुकी थीं। सुखद आश्चर्य देखकर हुआ कि बेटा आ गए थे। हम दोनों की दिनों दिन विवशता और लाचारी बढ़ती जा रही है। इसी का खयाल कर बेटा ने सोचा होगा कि नहीं मुझे मुकाम पर रहना चाहिए। हमने सोचा, शायद रिक्शा पर बेटा ले जाएगा। पर नहीं, अपनी कार से आया था। कार पर बिठाकर ले गया।
हमारा एक सपना यह भी था कि हमारे बुढ़ापे में बेटे उस औकात के हो जाते कि वे अपनी गाड़ी से रिसीव करने आते और रेल गाड़ी पर चढ़ाने के लिए स्टेशन पहुंचाते। आज वही हो रहा है।
मन की मुरादें किसी की पूरी हों।' सपना साकार होता रहे तो खुशियों का अंबार लग जाता है।

Friday, December 5, 2008

बोलती बंद

गफूर भाई तेज तर्रार किस्म के आदमी हैं। लोग उनकी उम्र पूछते हैं, "दादा हो, आपकी उम्र क्या हुई।" तपाक से कह बौठते हैं, "जरा तू ही बता, मेरी उम्र क्या हो सकती है?" "बड़का भूकम्प के वख्त आप कित्ते साल के थे।" "उस वख्त की बात करते हो, दो जमात पास कर गया था।"
"दादा, गजब की बात करते हो!"
"क्या हुआ बे!"
"दो जमात से बात कहां खुलती है कि आप कित्ते बरस के थे।"
"ओ! तो तुम उमर जानना चाहता है। अब समझा। यही बारह-चौदह साल का होगा।"
फिर गफूर भाई बुदबुदाते हुए आगे बढ़ गए। कम्बखत सब उमर पूछते रहता है। क्या बूढ़ा होना गुनाह होता है। आज बच्चा पैदा होता है, बड़ा होता है। जवान होता है। तालीम हासिल करता है। निकाह होता है। नौकरी लग जाती है। अपनी औलाद की परवरिश करता है। उसी तरह तुम भी बूढ़ा होगा। बच्चा, बूढ़ा, यह सिलसिला तो लगा है।
छड़ी टेकते, घर की ओर डेग भरते हुए, गफूर भाई बढ़ते जा रहे थे। पाकेट में पैसा टटोला। खुशी हुई। "अमां, यार अपने को कहा। तो क्या कुछ हो जाय। "सुधा" का काउंटर आगे आ रहा था। रहमत भाई, सुधा काउंटरवाले उनको देख रहे थे। टोक दिया। "भाई जान, कहां गए थे। अकेले चलते हैं। किसी बच्चे को संग क्यों नहीं कर लिया?" इस पर आव देखा न ताव। उस पर गफूर भाई, बिगड़ बैठे।
गजब के तुम हो? तुम्हारा जर्जर बदन देखकर कोई चेताता है। रहमत भाई ने तुम्हारी भलाई की बात की है। और तुम बिगड़ बौठे, उन पर।
जाने दो, देखो रहमत भाई से पूछो न, क्या सब है! रहमत भाई से रू-ब-रू होते ही पूछ बैठे, "क्या सब है?"
"सब कुछ है।" रहमत भाई का जवाब मिला।
फिर गफूर भाई की मजबूरी का आलम आ खड़ा हुआ। ससुरी सरकार जहां-तहां अपने " सुधा" सेल पाइंट काउंटर एक ही डिजाइन की बनाती है। राजधानी से छोटे बड़े शहर तक फैला रखी है। इसके ब्रांड की तारीफ गुनते रहे। कमाल का पेड़ा होता है। पांच से लेकर चौदह रूपये तक का, स्ट्राबेरी का आइसक्रीम। रसगुल्ला, दही, लस्सी..
गफूर भाई की मजबूरी रहमत मियां ताड़ गए। रूकिये मैं आ जाता हूं। और गफूर भाई का हाथ पकड़ कर ऊपर ओटे पर चढ़ा लिया। गफूर भाई एक ओर खड़े थे। दो ग्राहक आ गए। एक ने एक लीटर दूध की मांग की। पाकेट से नंबरी निकाला। इस पर रहमत मियां ने तपाक से कहा। "नंबरी का खुदरा नहीं है। चट से ग्राहक ने कहा, "पचास देता हूं।" दूध लिया खुदरा वापसी में रहमत भाई ने दो टॉफी, नोट और सिक्का दिया था।
"दूध का कित्ता पइसा काटे।"
"चौदह रुपये।"
"ज्यादा क्यों?"
"दाम बढ़ गया है।" वह वापसी पैसे को मिलाने लगा। दस का नोट तीन है, एक पांच का है। "कित्ता हुआ?" रहमत भाई ने पूछा।
"पैंतीस।" उस लड़के ने कहा।
"ठीक है, और दो टॉफी का दाम एक रुपया। हुआ न छत्तीस।"
उसके बाद दूसरे ग्राहक से निबटने के बाद गफूर भाई से पूछा, "आपको क्या चाहिए?"
"लस्सी।"
"नहीं है।"
"पेड़ा ले लें, चौदह का है।"
गफूर भाई रूक गए।
"फिर आइसक्रीम है, पांच, दस और चौदह का।" रहमत भाई ने कहा।
"दस का दे दो।" गफूर भाई बोले। रहमत भाई ने दस का आईसक्रीम आगे किया। प्लास्टिक का चम्मच दिया। फिर गफूर भाई बिफर पड़े। रहमत भाई से पूछा। यहां-वहां चिपटा हुआ आइसक्रीम का खाली कप। लगता है चादर सफेद बिछी है। डस्ट बिन क्यों नहीं रखते? गफूर भाई ने सवाल रक्खा!
क्या करें साहब। मुख्यमंत्री का बेल्ट है। गली, कूची सब बन गया है। यह रास्ता फ्रोफेसर कॉलोनी जाती है। यहां के लोग जदयू के नहीं हैं। यहां नगरपालिका का झाड़ू देनेवाला भी नहीं आता है।
गफूर भाई के नहाने का वक्त हो रहा था। बाल बनाने गए थे। गप्प भी चल रहा था। आइसक्रीम चाट गए। छड़ी हाथ में ली। ओटा से उतर गए। फिर आगे कदम-ब-कदम डेग बढ़ाते हुए घर की ओर जा रहे थे।
फिर भीतर की आवाज आई, तुम्हारा चटोरपन गया नहीं। चौदह का पेड़ा ले लेते तो घर भर खाते।
सैलून से हजामत बनाकर लौटे हो। बीवी जान को जवाब देना। वहां भी हजामत बनेगी।
घंटी बजाई। किवाड़ खुला। पंखा खोलकर बैठ गए। उधर से पोते-पोतियां आईं। बीवी जान आईं । पूछा, "कुछ लाये नहीं!" गफूर भाई की घिग्घी बंध गई।

Thursday, December 4, 2008

हसीना

ये गेसू
ये झुमके
ये बिंदिया
ये बेसर
ये खनकती चूडिय़ां
ये चांद-सा मुखड़ा
ये हिरणी सी आंखें
ये छरहरा बदन
ये सलवार
ये चुन्नी
चालों में शोखी
दिल धडक़ता है
मन करता है
तमन्ना होती है
एक बोसा ले लूं
तुम पर निसार हो जाऊं

समरस कविता संग्रह से

Wednesday, December 3, 2008

आज का आदमी

क्या हो गया आज के आदमी को!
बाहर कुछ भीतर कुछ
करता कुछ बोलता कुछ
समझता कुछ
यह अन्तर क्यों!
आदमी खतम हो गया!
नहीं, कौन कहता है!
हर कोई कहता है
अपने को छोडक़र, कहता है।
मैं ठीक हूं, दुनिया बदल गयी।
नहीं, दुनिया जगह पर है
फिर आदमी!
आत्मघाती हो गया / विश्वासघाती हो गया
पीठ पीछे छूरा भोंकता है।
क्या यही आदमी है!
हां आज का
आदमी यही है!
उसे कौन बदलेगा!
भगवान बदलेगा!
भगवान है कहां!
क्या वह सदेह है!
नहीं, निराकार है।
फिर, निराकार तो कुछ नहीं कर सकता!
यह कहना गलत है कि निराकार कुछ नहीं कर सकता।
तो क्या ठीक है!
भीतर का आदमी, आदमी को बदल सकता है।


समरस, कविता संग्रह की पहली कविता

Tuesday, December 2, 2008

उधर

हवा में तैरती
प्रियजनों की
फुसफुसाहट
कब तक
ढोना पड़ेगा
मुआं
इन जिंदा
लाशों को
इनकी मौत
कब
आयेगी!

Monday, December 1, 2008

इधर

जिस मुकाम तक
पहुंचे हो
चाहते क्या हो
दुनिया को मुट्ठी में
करने की ख्वाहिश
तुम्हारे डेग नहीं उठते
सीढ़ी चढ़ नहीं सकते
सहारा ढूंढ़ते हो
ताकते रहते हो
दौड़ कर आता है
एक अदद कोई
पोता, पोती, बहू
बेटा
निहाल हो जाते हो

Saturday, November 29, 2008

मुश्किलें

मुश्किलें

मुश्किलें आती हैं
टिक जायं
झेल लो
सोना जैसा
निखर कर
निकलोगे।

Sunday, October 12, 2008

कोसी की बाढ़:छठा दिन

छठा दिन
एलार्म के पूर्व नींद टूट गई। जगा पड़ा रहा। एलार्म बजने पर उठा। शौच से निवृत, ध्यान के पूर्व देव दर्शन प्रार्थना। ध्यान जमता नहीं। आधा घंटा बी बी सी सुनने के साथ व्यायाम। आगे न्यूज सुना प्रादेशिक। स्नान-पूजा,दीवान (जाप)पर शंख बजाया पूजा घर में। सत्तू का जलपान। सवेरे पानी निकल गया। दोपहर बाद बढ़ता दीखा। सायकिल बेंच पर रखने को कहा, नहीं रखा गया। आज अशोक बोल रहे थे, सब कुछ अलग काम बाबूजी ने किया। कोई जवाब नहीं दिया। वाइफ भी बोलती हैं। सारा ठिकरा मेरे सिर फोड़ा जा रहा है। 1985 की डायरी की मुख्य बातें नोट किया।
फिर पानी का बढऩा। भय-दहशत बरकरार। मेरी एक बात सुनी नहीं जाती।
शाम को घंटा भर सिर्फ गायत्री जाप माला किया - अपराह्न की बेला 2:30 का न्यूज नहीं लगा।
शाम को बी बी सी लगा। राजनीतिक घटनाचक्र का सारांश अच्छा। काफी जानकारियां रहती हैं।

Saturday, October 11, 2008

कोसी की बाढ़:पांचवां दिन

पांचवां दिन
ओम नम: शिवाय की ध्वनि पांच बार। उसके पहले ही उठ बैठा। पूजा घर जाकर प्रणाम किया। और मुंह धोकर आ गया,किशमिश खाया अपने हिस्से का,फिर राष्ट्रीय प्रसारण घंटा भर सुनता रहा। न्यूज सुनकर बंद किया।
बी बी सी लग गया। उसके साथ कसरत और योगा समाप्त किया, फिर जलपान। स्वाध्याय अखंड ज्योति से,पुरानी डायरियां निकालीं। तोषी को पहुंचाने कलकता गया था। दुल्हिन और पत्नी साथ थीं।
फिर तोषी को मुंबई पहली बार पहुंचाने गया। उस प्रवास की कहानी मझधार में,त्रासदी से ही।
आज दोपहर में देह में धूप लगाने गया। राम जी बाबू अपने परिवार के बेटों के साथ बहस में थे। बेटों का दवाब था, अन्यत्र जाने का। रामजी बाबू का कहना, जीना-मरना यहीं है। वाईफ ने कहा, बी डी ओ इसी रास्ते निकले थे।
सुनील ने घर के उत्तर तरफ देखा। खतरा भांपा। नहाकर चला गया, अपने घर ।
अनिल का कमांडर को लिखा पत्र दिखाया। उसने संदेश से भेजवाई, पर वह उनके पास तक पहुंच नहीं सका। किसी ने कहा, हम खुद आफत में हैं।
समय से चाय और भोजन मिल जाता है। वाइफ का मेरी बात सुनकर तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त करती हैं। उनका कहना ठीक है। मुझे चुप रहना चाहिए। मैं भी वैसा ही महसूस करता हूं।
कुछ लोगों को ,राम चन्दर और हीरा का परिवार चला गया। मन में आशंका लिए कि घर जाएगा। मैं शाम को सुंदर वातावरण के लिए गायत्री जाप का सहारा ले रहा हूं। ऊपर वेला मन भयभीत था,पर रात भी चैन से सोया। घर के कमरों का पानी घटता-बढ़ता रहा।

Wednesday, October 8, 2008

कोसी की बाढ़:चौथा दिन

चौथा दिन
एलार्म बजते ही बिस्तर छोड़ा। यों घर का पानी निकलते देख खुशी हुई। पर पानी का वेग पूरब में देख कर, वह भी पोर्टिको से जो पास कर रहा है, उससे भयभीत मेरे मन ने अशोक को आगाह किया, घर गिर सकता है। तो उनका कहना हुआ अशुभ मुंह से क्यों निकालते हैं।
कल जो पत्र बी डी ओ को देना चाहता था,उसे आज सुशील के मार्फत पूर्वाह्न में भिजवाया। पर अभी तक उनके दिलो दिमाग पर कोई असर नहीं हुआ। उन्हें एक पदाधिकारी के नाते त्वरित एक्शन का सुझाव देना चाहिए था। स्थलीय जांच भी कर सकते थे।
रामजी बाबू ने इसकी गंभीरता को समझा तो पोर्टिको की स्थिति, फिर घर के उत्तर की दीवार की नींव की स्थिति को देखते हुए, कुछ ईंटें डाली गईं।
अशोक जी ने पानी खतम होने पर चारों तरफ किनारे-किनारे बोल्डर बिठाने को कहा। मन ही मन में मैंने कहा, कब तक ये वैशाखी पर रहेंगे।
घर बच गया, हम बच गए तो सावधानियां बरती जानी चाहिए। यों नवंबर के पहले जाने की बात पत्नी कर रही है। 30 सितंबर से नवरात्र शुरू हो रहा है। 10 अक्टूबर के बाद जैसी स्थिति रही कुछ दिन पटना में रहकर मुंबई चले जायेंगे।
आज उपरी वेला हेलीकप्टर से कुछ पैकेट जहां-तहां गिराये गए। कुछ को मिला, कुछ को नहीं। चला गया। विन्देश्वरी का परिवार भी चला गया। विन्देश्वरी के दामाद से बातें हुईं।
कुछ लोग छत पर और कुछ लोग नीचे सोये। मैं भी पेशाब करने उठता रहा। नींद आई।

Tuesday, September 30, 2008

कोसी की बाढ़:तीसरा दिन

तीसरा दिन
ओम नम: शिवाय पांच बार सुनते ही उठ बैठा। आज का समय ध्यान, मंत्र जाप, पूजा घर जाकर प्रणाम। फिर मंत्र जाप घड़ी से।़ मुंह धोकर किशमिश का आहार लिया, दुलहिन को चूड़ा-चीनी मांगा। पर्याप्त मिला। छत पर गया। रोड का जायजा लिया। खेड़वार परिवार दक्खिन वाले रोड पर सत्यनारायण मुखिया। नेता देवू ,सभी अपने-अपने घरों में। रोड पर नेता के नेता खोज खबर के लिए नहीं निकले। रामजी बाबू का परिवार। हीरा। रामचन्द्र। विन्देश्वरी । बचू का परिवार। तुलसी मां की बेटी। मेरे यहां है। अरुण एक दिन के लिए। नेता जी के यहां गए।
घर के अंदर पानी कम हुआ है। पर अभी तक हटा नहीं है। बाहर पानी के आने का वेग उत्तर से जारी है। पोर्टिको के भीतर का पानी किचन की ओर मुड़ कर पश्चिम जा रहा। प्रांगण में ईंट से पूरब उत्तर से दक्खिन की ओर पानी का प्रवाह जारी है। दिन में तीन रोटियां सब्जी के साथ खा लीं।
राम चन्दर ने वीरपुर का हालचाल सुनाया। सुशील ने भी शहर कुछ खबर की सुनाई।
नई किताब के लिए प्रारूप तैयार किया।
अंधेरा होने के औपचारिक शुद्धि कर के संध्या का निर्धारित जाप संपन्न। शाम के पहले रात का भोजन तीन रोटियां, सब्जी, फिर बी बी सी पर आपकी बात। और एक कोई संस्था के बारे में विस्तार से कहा गया पुरानी बातों का हवाला इतिहास कहते हुए, आज की पीढ़ी को उसकी याद दिला कर सिर्फ जानकारी देने की बात होने, अपनाने का आग्रह है।
रात कई बार पेशाब करने उठा। शाम को ग्रिल पकड़ कर शौच किया। किशमिश वाइफ ने नहीं खाया। मैंने खा लिया। फिर सेव एक हम और किसू ने आधा-आधा खाया। एलार्म बजने पर बिस्तर छोड़ा। इनवरटर की शक्ति खत्म, लालटेन की रोशनी में ...

Sunday, September 28, 2008

कोसी की बाढ़:दूसरा दिन

दूसरा दिन
सुबह हुई। रात की सांस। पिछली घड़ी से भारी बरसा। बिना नहाये सुबह का मंत्र जाप। योगा - व्यायाम बी बी सी सुन नहीं पाया। समाचार कुछ,कुछ बिहार और बाहर देश की सुन पाया।
प्रात: की चाय। थोड़ा सत्तू। दिन में पूरा दूध का भोजन और विश्राम।
दिन होने के कारण आज चैन है। खतरा मंडरा रहा है। अपना घर के उत्तर की सडक़, प्रमुख जी का बगीचा ढाल का काम कर रहा। इसके उत्तर का पहले का निर्माण। पूरब से बोरिंग की भाीसी बचाव भी काकारण है। पोर्टिको के पूरब से अनवरत उत्तर से पानी वेग से भाग रहा है। अभी का यही आकलन है। बिजली नहीं है। रात अंधेरे में बीतेगी।
ऊपरी बेला पानी का नजारा देखने छत पर गया। बिन्देश्वरी सपरिवार, बेटी-दामाद लेकर पनाह में आ गए। कैसे उनकी पिछली रात कटी थी।
कुछ पढ़ा-लिखा। एक कविता हिंदी दिवस की प्रति साफ की। कुछ अखबारों को फोटो कराके भेजने के लिए। अपने घर के पूरब से पानी वेग में, दक्खिन की ओर। बाद में पोर्टिको के बरामदे के भीतर से भी पानी निकल रहा है तेज धार बनकर। यह गनीमत है। घर में पानी फिल्ली भर है। धीरे-धीरे बढ़ रहा है। आसन्न खतरे के मद्देनजर सावधानियां बरती गई हैं। दीवान खाली किया गया। किताबें, फाइल, ऊपर के रैक पर रखवाया।
संध्या का आगमन। कुछ पढ़ा। अखण्ड ज्योति का एक लेख अवश्य पढ़ लेना चाहिए। दीवान पर ही समय, अधिकांश समय। ट्रांजिस्टर मेरे जीने का आधार, देश-दुनिया से अवगत होता रहा। रात बरसा नहीं हुई। ऊपर-नीचे सभी घोड़ा बेच कर सोने जैसा -चैन से सोए। मैंने भी घर के भीतर का पानी घटते देखा।
भगवान बचावें। त्राहिमाम .... त्राहिमाम

Saturday, September 27, 2008

कोसी की बाढ़:कुशहा का बांध टूटना

अभूतपूर्व घटना
कुशहा का बांध टूटना
पूर्व की भांति आश्वस्त था कि वीरपुर को कुछ नहीं होगा। घर पक्का है,यही दीठ बनाये रखा। बगल के रामजी यादव का पूरा परिवार हमारे जीवन-मरण में खड़ा रहता है। उन्होंने अपने घर के सामान को सुरक्षित कर लिया। वे रात में अपने बाल-बच्चों समेत मेरे घर पनाह लेने आ गए। अगल-बगल के परिचित परिवार और बच्चे का पनाह लेने आ गए।
दुल्हिन ने सबों को छत पर भेज दिया। हम दोनों और बेटा-बहू, अभी भी अपने को सुरक्षित समझते हुए, सामान को रैकों पर और दीवान के ऊपर रखना शुरू किया।
त्राहिमाम त्राहिमाम, दिलों में दहशत, फिर भी निर्भीकता, अपने पक्के मकान का फख्र, सैकड़ों परिचितों के बाल-बच्चों की जान बची। दीवान पर मैं सो गया, एक तरफ पत्नी, बीच में किसू सो गए।
अजय को जानकारी दी। उस समय पानी से घिर गए थे। रंजन को खबर नहीं हुई। राजू को खबर हो गई। अद्र्ध नींद में, घड़ी पर नजर बार-बार। सुबह कुछ राम नाम,फिर गायत्री मंत्र का जाप। सुबह हुई। राहत की सांस।
मुशर्रफ का नव वर्ष से कछ महीने पहले गद्दी छोडक़र इस्तीफा देना, खुशियां पाकिस्तान में हर कूचे और गली में, तथा अवाम ने राहत की सांस ली।
पर जम्मू कश्मीर के नौजवानों ने फिर एक बार अलग होने का बिगुल बजाया है। भाजपा का हिंदू आंदोलन भी जम्मू में फिरकापरस्ती को आहुति दे रहा है। विस्फोटक स्थिति बनी है।

Friday, March 7, 2008

'मझधार' के लोकार्पण का आमंत्रण,९ मार्च

अगर आप पटना में रहते हैं तो ९ मार्च को समय निकालिए और मेरी नई पुस्तक 'मझधार' के लोकार्पण समरोह में आइये.मैं चाहता हूँ की इंटरनेट के जरिये मुझे जानने वाले मित्र इस समरोह में जरूर आयें.लोकार्पण समरोह सिन्हा लाइब्रेरी में ४ बजे निश्चित किया गया है.इस समरोह की अध्यक्षता श्री नृपेन्द्र नाथ गुप्त करेंगे.लोकार्पण दूरदर्शन के निदेशक शशांक के हाथों होगा.आपकी उपस्थिति से मुझे बढावा मिलेगा।
'मझधार' मेरा तीसरा कहानी संग्रह है.इसमें बारह छोटी-बड़ी कहानियाँ संकलित हैं.अधिकांश कहनियाँ विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं.मैं देश,दुनिया,समाज,घर,परिवार के बीच में जीवन बसर कर रहा हूँ.ये कहानियाँ उन्हीं के बीच से आई हैं.कहानियो के पात्रों के साथ मेरा तादात्म्य है.प्रच्छन्न रूप से मेरी आत्मीयता हर पात्र के साथ रहती है।
माँ का जैसा प्यार और लगाव अपनी संतान से होता है,ठीक वैसा ही मेरा लगाव अपने पात्रों के साथ रहता है.कुम्हार बर्तन बनाता है.कोई टेढ़ा-मेढ़ा भी हो जाता है.उसी प्रकार मेरी हर कहानी एक सांचे में ढली नहीं है,उनमें भिन्नता आपको मिलेगी.

Tuesday, March 4, 2008

भारत का भविष्य

एल ओ सी के दोनों ओर
कश्मीरी अवाम
दीवारें तोड़ने को तैयार
गले-गले मिलने को बेताब
पर
बचे-खुचे
चरमपंथी/दहशतगर्द
बस को/क्या चैन से
चलने देगे।
* * *
कश्मीर एक मसला है
पाकिस्तानी हुक्मरानों का
जो इसे अलग कर/रखना चाहते हैं
अमेरिका को एफ १६ विमान
दूसरी ओर एफ १८ विमान का पेशकश
क्या
अणु परमाणु मिसाइल के ज़माने में
यही सब होता रहेगा
क्या अमेरिका दिल से चाहता है
भारत एक विकसित देश बने
एशिया का सरताज बने
विश्व बाज़ार में जमे/यू एन ओ के
सुरक्षा परिषद् का सदस्य बने
वीटो पावर के साथ.

Monday, March 3, 2008

मेरा मन अब भी

ज़िंदगी एक धरोहर है
अमूल्य निधि है
इस पर अधिकार क्या सिर्फ़ मेरा ही है?
जैसे मैं चाहूँ
वैसे मनमानापन
इसके साथ करता रहूँ।
लगता है
सब कुछ कल की बात है
ज़िंदगी का चतुर्थांश
तो माँ-बाप के साया में
पला बढ़ा
आदमी बनाने का श्रेय उन्हीं का था।
उनके लिए
हमने क्या किया?
प्रतिदान तो उनने
चाहा नहीं
इस लम्बी ज़िंदगी में
बहुतों से संग छूट गया
कुछ रूठ गए
कुछ भगवान को प्यारे हो गए
आज अकेले खड़ा हूँ
मंजिल दिखायी देती है
चौथेपन की ज़िंदगी का
क्या भरोसा!
कब चली जाए
क्या अभी मुझे
सपना देखना चाहिए
कि यह कर लूँ!वह भी कर लूँ!
चाहत की कोई सीमा नहीं होती।

Friday, February 29, 2008

माहौल

इन दिनों
माहौल किसी भी क्षेत्र में
काम करने का नहीं रहा
कारन/प्रतिस्पर्धा/बदनीयती
स्वार्थपरता से कोई अछूता नहीं
कोई भी क्षेत्र हो,हर छोटा-बड़ा
चाहता है/परिश्रम कम हो
शीघ्रातिशीघ्र सारी भौतिक सुविधाएँ
वह हासिल कर ले
इसके लिए/हर हथकंडा
अपना सकता है
नैतिकता को ताखे पर
रख सकता है
फिर दूसरों की
चिंता क्यों हो?

Thursday, February 28, 2008

कोई बात नहीं

पावर संकट है/कोई बात नहीं

इनवर्टर हर कमरे में है

वह केंकियता है,तो जेनरेटर चलता

रात भर मच्छर सोने नहीं देता/कोई बात नहीं

ऑडोमॉस घिस लेता हूं

आल आउट है

कछुआ छाप भी जलता है

स्पीड में पंखा चलता है

मच्छर का नाना नहीं फटकता।

पानी दूषित हो गया/कोई बात नहीं

यों मिनरल वाटर चलता है

वाटर फिल्टर लगा लिया है

अक्वा फ्रेश का आर्डर दे दिया है ।

मन मुताबिक दहेज़ नहीं मिला/कोई बात नही

बहु को जला दूँगा/बेटे की शादी हो जायेगी

अपार बैंक बैलेंस है।

कोई बात नही।

छुपाने के रास्ते जग जाहिर हैं

गले में कैंसर हो गया है/कोई बात नहीं

पाइप से तरल पदार्थ लेता रहूँगा

भगवन भरोसे जीता रहूँगा

तापमान ऊपर चढ़ता जा रहा है/कोई बात नहीं

कूलर तो है ही

ए सी लगाने जा रहा हूँ

कहीं भी रहिये/कोई बात नहीं

मोबाइल ढूंढ लेगा

सिर्फ़ नम्बर चाहिए.

Monday, February 25, 2008

मजदूर

जन मजदूर
लेबर श्रमिक
कामगार
सारे के सारे
अपना श्रम
निर्धारित समय के लिए
बेचते हैं
बदले में मिलती है उन्हें
कुछ नगदी
जिनसे वे खरीदते हैं
दाल,चावल,आटा
नमक,तेल,सब्जी
और बिटिया के लिए
चिनिया बादाम
अपने लिए सुरती
पत्नी के लिए
एक मुट्ठा बीड़ी
* * *
घर पहुँचते ही
इन्तेजार करती
बीवी के हाथ में
थमा देते हैं पोटली
उधर से मिलता है
चूरा का भून्जा
नमक हरी मिर्च के साथ
ऊपर से एक लोटा पानी.

Sunday, February 24, 2008

निर्माण

निर्माणाधीन बहुमंजिली वसुंधरा

जहाँ-तहां कार्यरत श्रमिक

सबका लक्ष्य एक

इस गगनचुम्बी

एपार्टमेंट को

पूरा करना

अंजाम देते जाना

* * *

खेल पैसों का है

पेट का सवाल है

रोजी का सवाल है

हर श्रमिक श्रम बेचता है

अपने पेट के लिए

बाल-बच्चों के लिए

माँ-बाप के लिए

* * *

बांस-बल्लों पर खड़ा होकर

हथौड़ा करनी

छेनी से ठुक ठुक करते रहना

एक शकल

एक आकार का

रूप देते जाना

वसुंधरा की इस

बहुमंजिली इमारत को।

Friday, February 22, 2008

कोहरा

जाड़े की जवानी
पूस माघ के महीने
गेहूँ तोरी के
झूमते पौधे
ठिठुरती आलू की
हरी-हरी क्यारियां
विवशता में कोहरे से
गलबांही को मजबूर
भयभीत/कहीं
बलात्कार न कर जाए
पाला न झुलसा जाए
बचाव में जुटा
उसे बोनेवाला
धूल-धूसरित
ठंढ में ठिठुरता
उपचार में जुटा
कभी इन्डोफिल का छिड़काव
कभी अन्य उपचार
घबराया-घबराया
कभी कृषि विशेषज्ञों के पास
कहीं जमा पूँजी
डूब न जाए।

Sunday, February 17, 2008

वर्षों बाद

इस बार
फँस गया
भोगने को जाड़ा
सुदूर
उत्तर बिहार के
एक गाँव में
जहाँ
आज भी
बिजली नहीं
ढिबरी जलती है
रात में
एक लालटेन भी नहीं
घूरा
अलाव जलते ही
जुट जाते हैं
नंग-धड़ंग
छोट-छोटे बच्चे
घूरा के चारों ओर
सांझ सवेरे
उनके बदन पर
मैली-कुचैली
फटी
गंजी है.तो क्या?
मैं अपने घर में
बंद हो जाता हूँ
अपनी कोठी में
जनरेटर चालू होता है
रौशनी बहर भीतर
फैल जाती है
हीटर चालू होता है
लांग कोट पहन लेता हूँ
टोपी मोजा डाल
लेता हूँ
रिमोट के सहारे
आराम से देखता हूँ
चुनावी दंगल
बदलते चैनलों में
रंग बिरंगे प्रोग्राम।

Saturday, February 16, 2008

मेरा घर

घर में पाँव रखते ही
बड़ा अच्छा लगता है
मेरा कमरा/सबसे बड़ा कमरा
बाबूजी का कमरा/कहलाता है
बाबूजी इस कुनबे के
सिरमौर हैं
बूढ़े हो गए हैं
* * *
बीस वर्षों में यह घर बना है
चार कमरे हैं
चार सपूतों के निमित्त
बनाया था
बाबूजी ने अपने को
माइनस कर रखा था।
किंतु आज विडंबना
कुछ और है
हो कुछ और गया
सारे बेटों ने अपना-अपना
आशियाना महानगरों
बना लिया।
अपना घोंसला ही
अच्छा लगता है।
बड़ा सा यह घर
भांय भांय लगता है
हम्दोनों ही
घर में
जी रहे हैं।

Friday, February 15, 2008

मैं चुप रहूँगा

कल को धर्म पत्नी
संगिनी संग सहविस्तर
चलता रहा
इन्द्रियां शिथिल हो गयीं
मेरी भूख-उसकी भूख
चली गई,ख़त्म हो गई
वह अलग मैं अलग
* * *
उन दिनों उसका मुंह
नही खुलता था
औलादें देती रही
घर-आँगन संभालती रही
डर-सहमी रहती थी
अच्छा बुरा
सब झेलती रही ।
* * *
इस बुढ़ापे में
उससे झेला नहीं जाता
निर्भीक हो गई है।
अब डर काहे का
उसका मुंह खुल गया है
जैसे
घोंगा का मुंह खुल जाता है
अनाप-शनाप
बेधड़क बोलती रहती है
व्यंग वाण
छोड़ती रहती है
तार तार कर देती है
बच्चे देखते रहते हैं
सुनते रहते हैं
मुस्कराते रहते हैं।
हम दोनों के बीच कोई नहीं आता
मैंने अब सोच लिया है
तुम बोलो,खूब बोलो
मैं चुप रहूँगा।

Thursday, February 14, 2008

यथावत

जैसे मैं हूँ

वैसे ही मुझे रहने दो

अब क्या होगा

यह आमूल चूल परिवर्तन

अब तो जाने की घड़ी

आ गई है।

मुझे नहीं चाहिए

लंबा चौड़ा दीवान पर

मोटा गद्दा

मेरी मुश्किलें बढ़ जाती हैं

मैं तख्त पर सोता था

तख्त ही चाहिए

मेरे कमरा में एसी नहीं चाहिए

उसमें सोने की आदत नहीं

जुकाम पकड़ लेता है

आल आउट/कछुआ छाप

नहीं जलाओ

माथा पकड़ लेता है

मुझे फ्रिज का पानी मत दो

गला पकड़ लेता है

हीटर मत जलाओ

अलाव दो

लिहाफ दो

धूप में बैठने दो.

Wednesday, February 13, 2008

संकीर्णता

यों समय बदलता जा रहा है.फिर भी घर-परिवार की महिलाएं संकीर्णता और उंच-नीच के प्रति दोहरी नीति से उबार नहीं पायीं हैं।
उस दिन की बात है.परिवार के ही एक गूंगे लड़के ने घर से गिलास में पानी लाकर दलित जाती के मजदूर को दे दिया ,जिसके लिए केले के पत्ते पर खिचड़ी परोसी गई थी.खिचड़ी उसके लिए अलग से पकाई भी गई थी,जबकि चौके में उस दिन अच्छा खाना पका था.घर-परिवार के बर्तनों में बुढिया मालकिन के सामने बहु चाह कर भी वैसे मजदूर को घर की थाली में भोजन परोस कर नहीं दे सकती थी।
मालकिन जब बाहर निकलीं तो उनकी नज़र उस गिलास पर पड़ी,जिसमें उस मजदूर को पानी दिया गया था .वह दहारने लगीं की मेरे गिलास में उसे पानी किसने दिया।
उन्हें कहा गया की रामदेव पापा ने दिया है तो वह उस पर बिफर पड़ीं.तत्काल उस गिलास को उनहोंने फ़ेंक दिया और कहा की गिलास एक दलित ने जूठा कर दिया।
उस समय वह मजदूर चांपाकल पर अपना हाथ मुंह धो रहा था.घर की बूढ़ी मालकिन की आवाज उसके कानों तक गई.पलट कर उसने कहा,'माई जी!हममे गिलास मुंह नै लगैले छलों।'
फिर बारी में आम के पेड़ के नीचे बैठ कर उसने अपने बटुआ से सुपारी निकली,कतर कर मुंह में डाला और एक बीडी सुलगा कर पीने लगा।
जब शाम होने को आई तो घर के मालिक से उसने मजदूरी ली और अपने घर की ओर चल पड़ा.उसे आठ किलोमीटर की दूरी तय करनी थी.ताबड़तोड़ साइकिल चलाता गया।
वह मजदूर हफ्ता में एक दिन अभी भी आता है.उसके झोला में लोटा रहता है.उसमें वह पानी टू स्वाभिमान से पी लेता है.पर उसे खाने के समय केले का पत्ता लेन को कहा जाता है तो वह मन ही मन सोचता है,'क्या मैं इस घर की थाली में खाने का अधिकारी नहीं हूँ.'

Monday, February 11, 2008

हक्का-बक्का

नॉन-स्टॉप बस एक जगह रुकी.कंडक्टर ने समझा कोई हजारीबाग की सवारी होगी.बस के भीतर आगे एक महिला,पीछे से उसका पति जैसा जवान सफ़ेद कपडों में बढ़ा.कंडक्टर ने पूछा,कहाँ जाना है,उसने पास के किसी गाँव का नाम लिया.कंडक्टर ने कहा,उतरिये..यह एक्सप्रेस बस है.तुरंत उस युवक का तेवर बदला और उसने कहा,बदतमीज!पहचानते नहीं.मैं स्टाफ हूँ.बड़ा हाकिम हूँ.चुपचाप बैठो.ड्राईवर से कहा,बस बढाओ भाई।

कंडक्टर हक्का-बक्का.उसकी बन्दर घुड़की पर ही उसे लगा कि हाथापाई होगी.कंडक्टर अपने ढंग से उसका प्रतिवाद करता रहा.सारे मुसाफिर दोनों की बातें सुनते रहे.किसी मुसाफिर ने उनके बीच आने का,इस झमेले को छुड़ाने की कोशिश नहीं की.सारे मुसाफिर मूक दर्शक बने रहे.कंडक्टर मेरी बगल में आकर बैठ गया.मैं भी चुप रह.एक दो और पैसेंजर से उसने भाडा लिया.टिकट नहीं दिया।

इस बीच झपकियाँ लेते-लेते मैं लंबी नींद में चला गया.मेरी आँखे खुलीं तो जहाँ वह महिला बैठी थी,वह नहीं दिखी.मैंने समझा वह जुझारू,दबंग आदमी,शेखीबघारने वाला उतर गया होगा.कंडक्टर मुँह बंद कर चुका था।

फिर मैंने कंडक्टर से पूछा,"क्या आपने उन दोनों से भाड़ा मांगने का जुर्रत उठाया.उसने कहा,"नहीं"।

मैंने पूछा."क्या वह आपका स्टाफ सही में था.""नहीं कह सकता."उसका जवाब.आगे उसने कहा,"ऐसा हजारीबाग की तरफ होता,तो विस लोगों से पैसेंजर भी दो हाथ देख लेते हैं।"

फिर आज की अराजकता की बातें हुईं.कंडक्टर उनके उतर जाने के बाद,कमीज झाड़कर,अपनी शेखी बघारने लगा.

Sunday, February 10, 2008

नोक-झोंक

कुमुद बाबू के यहाँ नाश्ता कर के राघव जी से मिलने गया.संयोग अच्छा था,घर पर मिल गये.अपनी उपलब्धियों की चर्चा करते हुए, सद्यः प्रकाशित 'इन्द्रधनुष' कविता संग्रह उन्हें देखने को दे दिया.वे उलटते-पलटते रहे.मैं अपनी बातें उनके कानों में डालता रहा।
बात आई कि कैसे यहाँ के साहित्यकारों के हाथों में मेरी यह किताब पहुँचेगी और उस पर मेरी मौजूदगी में चर्चा हो जैसा आज तक कहीं नहीं हो पाया हो।
राघव जी ने कहा कि आप कल का समय रखें.आठ प्रतियाँ 'इन्द्रधनुष'की रख जाएँ.कल शाम को पांच बजे अपने यहाँ ,अपने लोगों को बुलाऊंगा,आपके सामने किताबें उन्हें मिल जायेंगी और एक मिलना-जुलना हो जाएगा।
ऑफिस जाने का उनका वक़्त हो रहा था.चलते-चलते मैंने उनसे 'संवदिया'के संपादक भोला पादित प्रणयी के ठौर-ठिकाना के बारे में पूछा.उनहोंने एक संकेत दिया,जयप्रकाश नगर के पश्चिम सीमा पर ही उनका छोटा सा निर्माण होगा,एक झोंपड़ी होगी।
राघव जी के घर से निकलने पर मुख्य सड़क पर ही एक रिक्शा मिल गया.रिक्शा चालक से जहाँ जाना है,उस स्थान का ब्योरा बता दिया।
वह चलने को तैयार हो गया.अक्सर रिक्शा पर बैठने के पूर्व मैं हर रिक्शा चालक से भाड़ा तय कर लिया करता हूँ ताकि रिक्शा से उतरने पर भाड़ा को लेकर नोक-झोंक न हो रिक्शा चालक के साथ नहीं हो.चालक ने कहा मुनासिब भाड़ा आप दे देंगे.बैठिये।
मैंने कहा,जिनके यहाँ जा रहा हूँ,वे जो कह देंगे,वही मुनासिब भाड़ा होगा.नई जगह पर किसी भी तलाश में आगे-पीछे कुछ हो जाता है.सही लोकेशन पर पहुँचने में वही हुआ.घरवासी,मानी भोला पंडित प्रणयी के डेरा के आगे रिक्शा से उतर रहा था,तब तक प्रणयी आ गए.उन्होंने कहा ,आप इन्हें पंद्रह रुपये दे दें.चालक अड़ गया कि मुनासिब भाड़ा मेरा अठारह रुपये होता है.नोक-झोंक चलने लगा.मैं पंद्रह पर अदा रहा,क्योंकि साफ वह कह चुका था,घरवासी जो कहेंगे वही मुनासिब भाड़ा होगा।
इस नोक-झोंक के बीच चालक ने कहा,'कुछ मत दीजिए.'मैंने कहा,'ऐसा kyon?'मैं और प्रणयी पक्षधर थे कि चालक को पंद्रह ही दिए जाएँ.उस समय मैं रिक्शा चालक को आप कहना भूल गया.जैसा कि मुख्य मंत्री का एलान है कि मजदूर वर्ग को तुम न कह कर.आप कहा करें.आदतन मजदूर को तुम ही कहा जाता रहा है.अंत में झख मार कर चालक ने पांच का सिक्का वापस किया,क्योंकि उसे दस के दो नोट दे चुके थे।
रिक्शा चालक लौटते हुए कुछ अनाप-शनाप बातें बोलता चला जा रहा था कि मजदूर को लोग सही मजदूरी लोग नहीं देंगे.और अपनी मौज-मस्त में सैकड़ों खर्च कर देंगे.उनका गरीबों के साथ ऐसा ही चलता रहेगा।
मैं सुनता रहा.मेरा विवेक जगा.अपने से पूछना चाह,चालक को उसके मन मुताबिक अठारह दे देता,तो इतना वाकयुद्ध नहीं होता.मेरे लिए तीन रुपये अधिक देने से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं.आये दिन कभी-कभी जिद्द और प्रतिस्थामूलक जद्दोजहद हो ही जाता है.

Wednesday, February 6, 2008

परिताप

ब्रह्मवेला,
दरवाजा खोलता हूँ
पोर्टिको का हेडलाइट
बुझाता हूँ
पूरब दिशा की ओर
निहारता हूँ
पौ फट रहा है
परिसर के
आम,शीशम,कदंब
आंवले के पेड़
अभी जगे नहीं हैं
आंवले की पत्तियां
मुंदी-मुंदी हैं
* * *
पर
ये सारे वृक्ष
आज जवान हो गए
और मैं बूढा हो गया हूँ
* * *
उन दिनों
जब वे बिरवे थे
पोतियों के नन्हें-नन्हें हाथों ने
इन्हें सींचा था
* * *
अब वे पराये घर
चली गयी हैं
यहाँ से टूट गया
उनका
नेह-नाता

Tuesday, February 5, 2008

मुश्किलें

हर जगह
मुश्किलें बढ़ती जाती हैं
जीना हरम हो गया है
खतरा डेग-डेग पर
पाँव पसरे बैठा है
निगल जाने को।
सच भीड़ देख कर
जाम देख कर
कलेजा काँप जाता है।
* * *
रेलगाड़ी में भीड़
मंदिर में भीड़
पोस्ट ऑफिस में कतारें
बुकिंग काउंटर पर भीड़
सिनेमा टिकट लीजिये
धक्का-मुक्का
वैध-अवैध
ए सी स्लीपर में भी भीड़
उतरने के समय
निकालना मुश्किल
कहीं गिरे
तो गए काम से
बूढें हैं तो घर में रहें
अकेले सफर न करें।

Monday, February 4, 2008

असमंजस

समझ नहीं आता
क्या करूं
क्या उम्रदाराजों को
कन्दराओं में शरण
लेनी होगी
या कि उन्हें
कदम-ब-कदम
युवाओं के संग
चलना होगा
* * *
फिर आज
बूढों को खारिज करने की बातें
क्यों उठती है?
तुम भी रहो वे भी रहें सामंजस्य
स्थापित करो।
१२.१०.०७

Sunday, February 3, 2008

दम-ख़म

मौत कोई चाहता नहीं
मैं छियासी में चल रहा हूँ
जन्मदिन पर लोगों ने
कहा-शतायु होवें
काम करता हूँ
घर-परिवार कहता है
बाबूजी!बंद करें
अपना धंधा
आराम कीजिए
***********
थक जाता हूँ
पस्त हिम्मत भी होता हूँ
फिर अहले सुबह
दम-ख़म से लग हूँ जाता
ब्लड प्रेशर नहीं है/डायबेटिक नहीं हूँ
आहार निरामिष है
आराम से डायना ब्रांड की
ला रंग की लेडीज साइकिल
चलाता हूँ
राह चलते उँगलियाँ
उठती रहती हैं
०९/१०/07l

Wednesday, January 30, 2008

पीढ़ियों का लुत्फ़

'क्या हुआ?' अम्मा ने पूछा.
पोती ने कहा, 'बाई नहीं आई'.
'तो क्या हुआ?'
'किचेन ठंढ़ा पड़ा है. मम्मी के आने का वक्त हो रहा है.'
टींकू ने दादी मां से कहा, जो बिस्तर पर पड़ी थीं, सर्दी-जुकाम से परेशान होकर.
टींकू अभी-अभी कॉलेज से आई थी, जो अपने फ्लैट से दस बजे निकली थी, कॉलेज के क्लासेज अटेण्ड करने के लिए.
टींकू ने दादी मां से कुछ नहीं कहा. उसका तेवर यह बतला रहा था कि हमें आराम करने दिया जाता. दादी मां उठ बैठी. उनका सर्दी-जुकाम काफूर हो गया.
तब तक रात फैल चुकी थी. दादी मां की नजरें खिड़की से बाहर गईं. और अगल-बगल के गगनचुम्बी अपार्टमेंटों में फैली-पसरी रोशनियां उन्हें अच्छी लगीं. मन ही मन उन्हें लगा यह मुंबई है, महानगर है. यहां की आबादी, यहां के घर, फ्लैट, कोठियां फैलती नहीं है, आकाश की ओर पसरती रहती हैं. आकाश से ही एक सीमित ऊंचाई तक बातें करती हैं. महानगर के कायदों का अंकुश नहीं रहता, तो आकाश छूने का होड़ लग जाता.
फिर दादी मां की थोड़ी देर के लिए यहां से सैकड़ों किलोमीटर दूर, नेपाल की तराई से सटे अपने गांव, अपने घर का ख्याल आया और मन ही मन अपने अहाते के गागल, अमरूद, नारियल, आम, कदम्ब, अशोक के वृक्षों से घिरे सुहावने कैम्पस के बीच उनका मन चला गया. उन्हें वहां बड़े बेटे, बहू और जेठानी को जो रुग्न पड़ी हैं को छोड़कर जल्दी-जल्दी, भागी-भागी मुंबई अपने दूसरे बेटे को देखने आना पड़ा.
तब तक टींकू के पापा ने माजरा भांप लिया और टींकू को कहा, 'चावल और मसूर की दाल में आलू डालकर रस्सेदार सब्जी बना लो. आसान पड़ेगा.'
यह सब होते-हवाते घड़ी के कांटे ने समय को आगे बढ़ा दिया. रात के नौ बज गए थे. ड्राइंग रूम में टीवी रिमोट के सहारे खोल दिया गया था. स्टार प्लस पर कभी अमिताभ बच्चन, कभी जी चैनल पर सवाल दस करोड़ बनाने के नजारों का लुत्फ लेने को मजबूर होना पड़ा. उधर किचन में टींकू ने सब्जी बना डाली और दादी मां ने रोटियां सेंक डाली. सारी परेशानियां टींकू की दूर हो गई.
बाद उसके घंटी बजी. किवाड़ खुला. बहू सारा खाने-पीने का सामान लेकर भीतर आई और उनके साथ लौटे लखनऊ से आये बहू के देवर, जो महानगर के जाने-माने दुकानों से रेडीमेड कपड़ों, साड़ियां, सेलुलर फोन, बच्चों के खिलौने लेकर लौटे थे. उनकी यह खरीदारी हजारों की हुई होगी.
उन सामानों को दिखाने के लिए टींकू की बहन, सींकू ने दादी मां को बगल के कमरे से खींच लाई. तीन पीढ़ियां एक साथ ड्राइंग रूम में जम गईं. सीलिंग फैन दोनों फुल स्पीड से चल रहे थे. दोनों ट्यूब लाइट की रोशनी कमरे में पसर गई थी.
लखनऊवाले अंकल अपने बच्चों के लिए, बीवी के लिए, अपने लिए, भाभी की पसंदगी से लेटेस्ट डिजाइन के कपड़े तो खरीदे ही थे. उसके साथ टींकू और सींकू के मन लायक की खरीदारी भी हुई थी.
मैं एक बूढ़ा आदमी आंखें पसार कर तटस्थ और निर्लेप भाव से इसमें सहभागी बनता रहा. अपने गुजरे जमाने की ओर मेरे ख्याल लौट गए. कितनी कठिनाइयों और मजबूरियों में इन बेटों को पढ़ाया-लिखाया. उनकी जिन्दगी को संवारने-बनाने के लिए एक बाप को जिस हद तक करना चाहिए था, वह मैंने नहीं किया. आज उनकी औकातों को देखकर, आंककर मन गदगद हो जाता है. नसीब ऐसा भगवान सब को दे.
क्या चाहिए? महानगर में अपना फ्लैट, अपनी कार. घर में सुख-सुविधाओं के सारे अटे-पटे सामान, वाशिंग मशीन, कम्प्यूटर, अपना-अपना क्रेडिट कार्ड, सेलुलर फोन आदि-आदि. वहां हजारों की खरीदारी तो कोई महत्व ही नहीं रखती है.
बहू ने 'मैकडोनाल्ड' का बड़ा पाव मुझे खाने को दिया. मैंने लपककर उसे ले लिया. पहले से ही मैं भूख महसूस कर रहा था. इससे उस बड़े पाव के अंदर क्या सब भरा है, बिना कोई प्रश्न किये उसे खाने लगा. किन-किन खाद्य पदार्थों का उसमें मिश्रण था, यह तो देखने और सोचने का अवसर मेरे सामने नहीं आया. मेरी जठराग्नि कुछ भी खाद्य को ग्रहण करने के लिए विवश थी. एक भूखा और प्यासा इन्सान कुछ भी खाने-पीने को मजबूर हो जाता है.
अभी-अभी मेरी आंखों के सामने से यह समाचार गुजरा था कि एक हेलीकॉप्टर जो दुर्घटनाग्रस्त हो गया था, उसमें फंसे कुछ जांबाज मौत और जिंदगी के बीच जूझ रहे थे. उन्हें प्यास बुझाने के लिए विवश होकर एक-दूसरे का पेशाब भी पीना पड़ रहा था.
उस बड़े पाव का आधा खा लेने के बाद ऐसा एहसास हुआ कि यह कहीं नन-भेज तो नहीं. उस समय तक मेरी भूख आधी मिट गई थी. मैंने जब बहू से पूछा, 'इस बड़ा पाव में नन-भेज का मिश्रण तो नहीं'. तो पत्नी ने ठहाका लगाया, 'क्यों, नन-भेज ही यदि हो तो क्या फर्क पड़ता है?' कभी इन्सान की कंठी टूट भी जाती है. वैसी चूक होने पर हर्ज क्या है, बालू-गोबर खाकर शुद्ध हो लेंगे. प्रायश्चित कट जाएगा.'
मेरे सवाल पर बहू ने जवाब दिया, 'मैं भला वैसा कर सकती हूं कि आपको नन-भेज परोस दूं.' बात वहीं की वहीं रह गई.


कहानी संग्रह 'विविधा' से लिया गया

Thursday, January 17, 2008

आकाश के नीचे

खुले आकाश के नीचे
बैठा था
धूप तापने
नीले आकाश में
तैरते बादलों को
देख रहा था
मुझे लगा
यह नील गगन नहीं
नीला सागर है
जिसमें तैरते श्वेत बादलों के
छोटे-बड़े टुकड़े
छोटे-बड़े जहाज-सा है
नाव और किश्तियां हैं
उन पर सवार
नंगी आंखों से
दीखते नहीं
प्रकृति का बदलता
यह स्वरूप
कितना लुभावन
मनभावन था।

- सुखदेव नारायण