Wednesday, January 30, 2008

पीढ़ियों का लुत्फ़

'क्या हुआ?' अम्मा ने पूछा.
पोती ने कहा, 'बाई नहीं आई'.
'तो क्या हुआ?'
'किचेन ठंढ़ा पड़ा है. मम्मी के आने का वक्त हो रहा है.'
टींकू ने दादी मां से कहा, जो बिस्तर पर पड़ी थीं, सर्दी-जुकाम से परेशान होकर.
टींकू अभी-अभी कॉलेज से आई थी, जो अपने फ्लैट से दस बजे निकली थी, कॉलेज के क्लासेज अटेण्ड करने के लिए.
टींकू ने दादी मां से कुछ नहीं कहा. उसका तेवर यह बतला रहा था कि हमें आराम करने दिया जाता. दादी मां उठ बैठी. उनका सर्दी-जुकाम काफूर हो गया.
तब तक रात फैल चुकी थी. दादी मां की नजरें खिड़की से बाहर गईं. और अगल-बगल के गगनचुम्बी अपार्टमेंटों में फैली-पसरी रोशनियां उन्हें अच्छी लगीं. मन ही मन उन्हें लगा यह मुंबई है, महानगर है. यहां की आबादी, यहां के घर, फ्लैट, कोठियां फैलती नहीं है, आकाश की ओर पसरती रहती हैं. आकाश से ही एक सीमित ऊंचाई तक बातें करती हैं. महानगर के कायदों का अंकुश नहीं रहता, तो आकाश छूने का होड़ लग जाता.
फिर दादी मां की थोड़ी देर के लिए यहां से सैकड़ों किलोमीटर दूर, नेपाल की तराई से सटे अपने गांव, अपने घर का ख्याल आया और मन ही मन अपने अहाते के गागल, अमरूद, नारियल, आम, कदम्ब, अशोक के वृक्षों से घिरे सुहावने कैम्पस के बीच उनका मन चला गया. उन्हें वहां बड़े बेटे, बहू और जेठानी को जो रुग्न पड़ी हैं को छोड़कर जल्दी-जल्दी, भागी-भागी मुंबई अपने दूसरे बेटे को देखने आना पड़ा.
तब तक टींकू के पापा ने माजरा भांप लिया और टींकू को कहा, 'चावल और मसूर की दाल में आलू डालकर रस्सेदार सब्जी बना लो. आसान पड़ेगा.'
यह सब होते-हवाते घड़ी के कांटे ने समय को आगे बढ़ा दिया. रात के नौ बज गए थे. ड्राइंग रूम में टीवी रिमोट के सहारे खोल दिया गया था. स्टार प्लस पर कभी अमिताभ बच्चन, कभी जी चैनल पर सवाल दस करोड़ बनाने के नजारों का लुत्फ लेने को मजबूर होना पड़ा. उधर किचन में टींकू ने सब्जी बना डाली और दादी मां ने रोटियां सेंक डाली. सारी परेशानियां टींकू की दूर हो गई.
बाद उसके घंटी बजी. किवाड़ खुला. बहू सारा खाने-पीने का सामान लेकर भीतर आई और उनके साथ लौटे लखनऊ से आये बहू के देवर, जो महानगर के जाने-माने दुकानों से रेडीमेड कपड़ों, साड़ियां, सेलुलर फोन, बच्चों के खिलौने लेकर लौटे थे. उनकी यह खरीदारी हजारों की हुई होगी.
उन सामानों को दिखाने के लिए टींकू की बहन, सींकू ने दादी मां को बगल के कमरे से खींच लाई. तीन पीढ़ियां एक साथ ड्राइंग रूम में जम गईं. सीलिंग फैन दोनों फुल स्पीड से चल रहे थे. दोनों ट्यूब लाइट की रोशनी कमरे में पसर गई थी.
लखनऊवाले अंकल अपने बच्चों के लिए, बीवी के लिए, अपने लिए, भाभी की पसंदगी से लेटेस्ट डिजाइन के कपड़े तो खरीदे ही थे. उसके साथ टींकू और सींकू के मन लायक की खरीदारी भी हुई थी.
मैं एक बूढ़ा आदमी आंखें पसार कर तटस्थ और निर्लेप भाव से इसमें सहभागी बनता रहा. अपने गुजरे जमाने की ओर मेरे ख्याल लौट गए. कितनी कठिनाइयों और मजबूरियों में इन बेटों को पढ़ाया-लिखाया. उनकी जिन्दगी को संवारने-बनाने के लिए एक बाप को जिस हद तक करना चाहिए था, वह मैंने नहीं किया. आज उनकी औकातों को देखकर, आंककर मन गदगद हो जाता है. नसीब ऐसा भगवान सब को दे.
क्या चाहिए? महानगर में अपना फ्लैट, अपनी कार. घर में सुख-सुविधाओं के सारे अटे-पटे सामान, वाशिंग मशीन, कम्प्यूटर, अपना-अपना क्रेडिट कार्ड, सेलुलर फोन आदि-आदि. वहां हजारों की खरीदारी तो कोई महत्व ही नहीं रखती है.
बहू ने 'मैकडोनाल्ड' का बड़ा पाव मुझे खाने को दिया. मैंने लपककर उसे ले लिया. पहले से ही मैं भूख महसूस कर रहा था. इससे उस बड़े पाव के अंदर क्या सब भरा है, बिना कोई प्रश्न किये उसे खाने लगा. किन-किन खाद्य पदार्थों का उसमें मिश्रण था, यह तो देखने और सोचने का अवसर मेरे सामने नहीं आया. मेरी जठराग्नि कुछ भी खाद्य को ग्रहण करने के लिए विवश थी. एक भूखा और प्यासा इन्सान कुछ भी खाने-पीने को मजबूर हो जाता है.
अभी-अभी मेरी आंखों के सामने से यह समाचार गुजरा था कि एक हेलीकॉप्टर जो दुर्घटनाग्रस्त हो गया था, उसमें फंसे कुछ जांबाज मौत और जिंदगी के बीच जूझ रहे थे. उन्हें प्यास बुझाने के लिए विवश होकर एक-दूसरे का पेशाब भी पीना पड़ रहा था.
उस बड़े पाव का आधा खा लेने के बाद ऐसा एहसास हुआ कि यह कहीं नन-भेज तो नहीं. उस समय तक मेरी भूख आधी मिट गई थी. मैंने जब बहू से पूछा, 'इस बड़ा पाव में नन-भेज का मिश्रण तो नहीं'. तो पत्नी ने ठहाका लगाया, 'क्यों, नन-भेज ही यदि हो तो क्या फर्क पड़ता है?' कभी इन्सान की कंठी टूट भी जाती है. वैसी चूक होने पर हर्ज क्या है, बालू-गोबर खाकर शुद्ध हो लेंगे. प्रायश्चित कट जाएगा.'
मेरे सवाल पर बहू ने जवाब दिया, 'मैं भला वैसा कर सकती हूं कि आपको नन-भेज परोस दूं.' बात वहीं की वहीं रह गई.


कहानी संग्रह 'विविधा' से लिया गया

Thursday, January 17, 2008

आकाश के नीचे

खुले आकाश के नीचे
बैठा था
धूप तापने
नीले आकाश में
तैरते बादलों को
देख रहा था
मुझे लगा
यह नील गगन नहीं
नीला सागर है
जिसमें तैरते श्वेत बादलों के
छोटे-बड़े टुकड़े
छोटे-बड़े जहाज-सा है
नाव और किश्तियां हैं
उन पर सवार
नंगी आंखों से
दीखते नहीं
प्रकृति का बदलता
यह स्वरूप
कितना लुभावन
मनभावन था।

- सुखदेव नारायण