Friday, May 14, 2010

साइबर गाँव बनाने का सपना

बिहार के जिला सुपौल का 'बसंतपुर' एक प्रखंड है। प्रखंड के प्रवेश द्वार पर मेरा सी॰ के॰ आश्रम है। यह आश्रम मेरा कृषि फार्म है। वहां मछूआरों की आबादी है। उन्हें मुखिया कहा जाता है।

आपने जमीं का मोहरा काटकर उन मछूआरों को करीने से बसाया है। एस बस्ती को मैंने नामांकित किया है सी॰ के॰ पुरम, निषाद बस्ती, सीतापुर। इन मछूआरों को गोढ़ी भी कहा जाता है।

करीने से बसाये गए इन मल्लाहों की बस्ती को देख कर निवर्तमान बी॰डी॰ओ॰ आजित वत्सराज ने थौक में 54 परिवारों को इंदिरा आवश की राशी आवंटित कराइ थी उनका इरादा इसे इंदिरा आवश का कलस्टर बनाने का था। मुझे इस बस्ती के मुख्य द्वार पर अर्ध विर्ताकर गेट बनाने को कहा गया था जिसपर लिखा जाता सी॰ के॰ पुरम, निषाद बस्ती, सीतापुर (सुपौल)।

आज वह संजोया सपना बिखर गया। क्योंकि उधर पास बुक लेकर इतराते मल्लाह घर पहुंचे होंगे , आपने को सहेजने का मौका भी नहीं मिला होगा की कुसहा का बाँध टूट गया। उनकी झोपरियाँ पानी में बह गयी। जान बचने की विवशता में डूबते-उतरते जैसे-तैसे नाहर के बाँध पे ये पहुंचे जहाँ सरकार की ओर से मेघा शिविर चल रहा था। यहाँ शरणार्थी बनकर महीनों दिन गुजरने पड़े। जन जीवन दिसम्बर 2008 पर सामान्य हुआ।

सरकार की ओर से मेघा शिविर बंद हुई सरे लोग आपने घरों को लौट आये। 2008 के अंत तक स्तिथियाँ सामान्य होने लगी।

इनकी इंदिरा आवाश की प्रथम किश्त की राशी कुछ बिचौलिओँ की जेब में गया और शेष अपनी जान बचने में खर्च हो गए । हकीकत आज यही है।

वहां साइबर गाँव बनाने का मेरा सपना बिखर सा गया लगता है न वहां सड़के बनी है न वहां बिजली गयी है.

आज मैं नब्बे के दशक में चल रहा हूँ मेरे शेष जीवन का आधार मेरा पेंसन ही है। लगता है , मैंने दिवास्वप्न देखा था । आज ऐसा ही कहेंगे।
इस इन्टरनेट के ज़माने में sukhdeosahitya.blogspot.com चलता है। मैं इन्टरनेट प्रेमियों से अपील करता हूँ , खाशकर उन समर्थ पेंसन धारियों से यदि कुछ आगे आ जाते तो मेरा बसाया चमन का सपना आज उजाड़ होता दिख रहा है मेरे विवशता का कोई अंत नहीं..................
गाँव से, मजदुर दिवस 2010.