2009 के दौरान
हमारा आपका रिश्ता
नया-नया रिश्ता
बरकरार रहे
प्रगाढ़ होता चले
यही शुभकामना है
Wednesday, December 31, 2008
आपने क्या किया
इस घड़ी
जहां खड़ा हूं
अंधकार से घिरा हूं
कुछ सूझता नहीं
कुछ दीखता नहीं
आवाजें आ रही हैं
पहचाने स्वर हैं
मैं पूछता हूं
शून्य में पूछता हूं
क्या कहा?
आपने क्या किया?
मैंने कुछ नहीं किया
सबूत पेश करना होगा
किसके आगे सबूत
जो मेरा जन्मा है
मेरे रक्तबीज का अंश है
सबसे बड़ा सबूत
तो वही है
आगे कुछ कहना
निरर्थक है
तू-तू मैं-मैं
बखिया उघारने
मुझे नंगा करने से
क्या कुछ /हासिल होगा
इस जर्जर काया में
बचा क्या है?
तो! मैं चलता हूं
निकल जाता हूं
जहां खड़ा हूं
अंधकार से घिरा हूं
कुछ सूझता नहीं
कुछ दीखता नहीं
आवाजें आ रही हैं
पहचाने स्वर हैं
मैं पूछता हूं
शून्य में पूछता हूं
क्या कहा?
आपने क्या किया?
मैंने कुछ नहीं किया
सबूत पेश करना होगा
किसके आगे सबूत
जो मेरा जन्मा है
मेरे रक्तबीज का अंश है
सबसे बड़ा सबूत
तो वही है
आगे कुछ कहना
निरर्थक है
तू-तू मैं-मैं
बखिया उघारने
मुझे नंगा करने से
क्या कुछ /हासिल होगा
इस जर्जर काया में
बचा क्या है?
तो! मैं चलता हूं
निकल जाता हूं
Monday, December 29, 2008
फास्ट लाइफ
आदमी की जिन्दगी
आपाधापी की जिन्दगी
भागदौड़ की जिन्दगी
कहां लिए जा रही है
क्या होगा!
महाकाल क्या चाहता है!
विनाश, महाविनाश
सबका विनाश
तब क्या होगा
कौन बचेगा! कौन भोगेगा! !
बचा-खुचा सुकर्मी
दूध का धोया
X X X
फास्ट लाइफ का क्या मतलब
भागते जाओ, रूको नहीं
सांस नहीं लो
छांव तले आराम नहीं करो
विश्राम नहीं करो
महानगरों के निवासी
रूको
गाड़ी की गति बढ़ाओ नहीं
एक झटके में चले जाओगे
आगे मौत मुंह बाये खड़ी है
तुम्हें खा जायेगी
तुम्हारे मासूम-बच्चे! बिलखते रह जायेंगे
उन्हें प्यार कौन देगा!
आपाधापी की जिन्दगी
भागदौड़ की जिन्दगी
कहां लिए जा रही है
क्या होगा!
महाकाल क्या चाहता है!
विनाश, महाविनाश
सबका विनाश
तब क्या होगा
कौन बचेगा! कौन भोगेगा! !
बचा-खुचा सुकर्मी
दूध का धोया
X X X
फास्ट लाइफ का क्या मतलब
भागते जाओ, रूको नहीं
सांस नहीं लो
छांव तले आराम नहीं करो
विश्राम नहीं करो
महानगरों के निवासी
रूको
गाड़ी की गति बढ़ाओ नहीं
एक झटके में चले जाओगे
आगे मौत मुंह बाये खड़ी है
तुम्हें खा जायेगी
तुम्हारे मासूम-बच्चे! बिलखते रह जायेंगे
उन्हें प्यार कौन देगा!
Saturday, December 27, 2008
कुछ करना है
दोस्तो!
हम पल दो पल के
साथी हैं
तो करना क्या है
कुछ सोचा है
कुछ विचारा है
कभी गौर किया है
अब तक
कितना खोया
कभी आंका है
वक्त
इंतजार नहीं करता
एकजुट होकर
अंजाम दें
जो करना है
बहुत हो चुका
कीचड़ न उछालें
घात न करें
इसी में
सब का भला है
सबके भला में
आपका भला है
हम पल दो पल के
साथी हैं
तो करना क्या है
कुछ सोचा है
कुछ विचारा है
कभी गौर किया है
अब तक
कितना खोया
कभी आंका है
वक्त
इंतजार नहीं करता
एकजुट होकर
अंजाम दें
जो करना है
बहुत हो चुका
कीचड़ न उछालें
घात न करें
इसी में
सब का भला है
सबके भला में
आपका भला है
Friday, December 26, 2008
आखिरी तमन्ना
तुम्हारे पापा-मम्मी ने
तुम्हारा नाम श्रेया रक्खा
श्रेया से तुम सूम्मी हो गयी
घर-आंगन में
तुम दौड़ती-फिरती रही
सुना है, तुम जा रही हो
क्यों?
तुम्हारे मां-बाप ऐसा चाहते हैं
तुम्हारे जाने के बाद
एक शून्यता होगी
उसे अम्मां कैसे झेलेंगी
कैसे भरेंगी
उनकी गोद सूनी हो जायगी
उनका मन उखड़ा-उखड़ा रहेगा
और मेरा भी वैसा ही
सुबह-सवेरे मेरे कमरे में
कौन आयेगी
मीट-सेफ कौन खोलेगी
गोलक में पैसा रोज
कौन डालेगी
अब छुहारा का डिब्बा
खाली नहीं होगा
ब्रेड और केक में
दहिया लग जायेंगे
पूजा के समय
मेरी गोद में
साधिकार कौन बैठेगी
प्रतिमा को
आरती-अगरबत्तियां
कौन दिखायेगी
मेरी रिक्तता कैसे भरेगी!
तिपहिया साइकिल का क्या होगा
मेरी साइकिल की / बेबी-सीट
पर कौन बैठेगी
बगिया के बिरवे
तुम्हारी प्रतीक्षा में
मुरझा जायेंगे
पानी कौन पटायेगी
और अम्मां
उन ख्यालातों में
डूबती-उतराती रहेंगी
गुडिय़ा जैसी, मोम जैसी
सूम्मी को
रात-रात भर
गोद में लिए बैठी रहती थीं
पलकों में नींद नहीं
आती थी
मनौतियां मनाती थीं
सूम्मी चंगी हो जा
हंसने लगे
मुस्कराने लगे
x x x
तुम्हारा आना-जाना
बड़े पापा-मम्मी के घर
बना रहेगा
पर अम्मां नहीं रहेंगी
मैं नहीं रहूंगा
और तब
तुम पर क्या बीतेगा
बेटा।़ संसार में यही होता है
जो आता है, वह जाता है
उसकी स्मृतियां
आती हैं-जाती हैं
x x x
तुम जाओ
अम्मा विदा करेंगी
मैं विदा करूंगा
बड़ी अम्मां बिलखेंगी
खुशी-खुशी जाओ
खूब पढऩा
बड़ा आदमी बननायही मेरी आखिरी तमन्ना है।
तुम्हारा नाम श्रेया रक्खा
श्रेया से तुम सूम्मी हो गयी
घर-आंगन में
तुम दौड़ती-फिरती रही
सुना है, तुम जा रही हो
क्यों?
तुम्हारे मां-बाप ऐसा चाहते हैं
तुम्हारे जाने के बाद
एक शून्यता होगी
उसे अम्मां कैसे झेलेंगी
कैसे भरेंगी
उनकी गोद सूनी हो जायगी
उनका मन उखड़ा-उखड़ा रहेगा
और मेरा भी वैसा ही
सुबह-सवेरे मेरे कमरे में
कौन आयेगी
मीट-सेफ कौन खोलेगी
गोलक में पैसा रोज
कौन डालेगी
अब छुहारा का डिब्बा
खाली नहीं होगा
ब्रेड और केक में
दहिया लग जायेंगे
पूजा के समय
मेरी गोद में
साधिकार कौन बैठेगी
प्रतिमा को
आरती-अगरबत्तियां
कौन दिखायेगी
मेरी रिक्तता कैसे भरेगी!
तिपहिया साइकिल का क्या होगा
मेरी साइकिल की / बेबी-सीट
पर कौन बैठेगी
बगिया के बिरवे
तुम्हारी प्रतीक्षा में
मुरझा जायेंगे
पानी कौन पटायेगी
और अम्मां
उन ख्यालातों में
डूबती-उतराती रहेंगी
गुडिय़ा जैसी, मोम जैसी
सूम्मी को
रात-रात भर
गोद में लिए बैठी रहती थीं
पलकों में नींद नहीं
आती थी
मनौतियां मनाती थीं
सूम्मी चंगी हो जा
हंसने लगे
मुस्कराने लगे
x x x
तुम्हारा आना-जाना
बड़े पापा-मम्मी के घर
बना रहेगा
पर अम्मां नहीं रहेंगी
मैं नहीं रहूंगा
और तब
तुम पर क्या बीतेगा
बेटा।़ संसार में यही होता है
जो आता है, वह जाता है
उसकी स्मृतियां
आती हैं-जाती हैं
x x x
तुम जाओ
अम्मा विदा करेंगी
मैं विदा करूंगा
बड़ी अम्मां बिलखेंगी
खुशी-खुशी जाओ
खूब पढऩा
बड़ा आदमी बननायही मेरी आखिरी तमन्ना है।
Wednesday, December 24, 2008
क्या करूं
एक अहम प्रश्न
अब क्या करूं?
करता रहा / चलता रहा
थका नहीं / हारा नहीं
रूका नहीं
शाबासी नहीं मिली
ठकुरसुहाती मिली
छला गया / भरमाया गया
फिर भी डटा रहा
बेबसी में जीता रहा
चमक-दमक भी देखी
आंखें चौंधिया गयीं
फिर भी दौड़ता रहा
हारा नहीं
तमन्नायें थीं
कुछ पूरी हुई / कुछ बाकी हैं
उम्मीदें बंधी हैं
पूरा करूंगा
खिलाफ में / मोहरे बिछे हैं
परवाह नहीं
हिम्मत बुलंद है
कुछ कर गुजरना है
जो भी गंवाना पड़े
अंगूठा दिखलानेवाले / दिखलाते रहें
व्यंग्य-वाण छोड़ते रहें / ठिठोली करते रहें
बेअसर हूं
जवाब क्या दूं / क्यों दूं
हमें कुछ करना है / कर रहा हूं
समय की रेत पर / पदचिह्न छोड़ जाऊंगा
अब क्या करूं?
करता रहा / चलता रहा
थका नहीं / हारा नहीं
रूका नहीं
शाबासी नहीं मिली
ठकुरसुहाती मिली
छला गया / भरमाया गया
फिर भी डटा रहा
बेबसी में जीता रहा
चमक-दमक भी देखी
आंखें चौंधिया गयीं
फिर भी दौड़ता रहा
हारा नहीं
तमन्नायें थीं
कुछ पूरी हुई / कुछ बाकी हैं
उम्मीदें बंधी हैं
पूरा करूंगा
खिलाफ में / मोहरे बिछे हैं
परवाह नहीं
हिम्मत बुलंद है
कुछ कर गुजरना है
जो भी गंवाना पड़े
अंगूठा दिखलानेवाले / दिखलाते रहें
व्यंग्य-वाण छोड़ते रहें / ठिठोली करते रहें
बेअसर हूं
जवाब क्या दूं / क्यों दूं
हमें कुछ करना है / कर रहा हूं
समय की रेत पर / पदचिह्न छोड़ जाऊंगा
Monday, December 22, 2008
मन
हाथ-पांव
आंख-कान
किसके इशारे पर
चलते हैं
हुक्म किसका
चलता है
इन्हें क्रियाशील बनाने में
एक्टिव रोल
किसका होता है
क्या मन का
x x x
मन दिखाई नहीं देता
वह पारदर्र्शी नहीं
पर मन
सबको नचाता है
इन पर कंट्रोल
मन का होता है
मन के पास
अज्ञात-सूक्ष्म
कार्डलेस तरंग है
जो
ध्वनि, विद्युत से
अधिक शक्तिशाली है।
आंख-कान
किसके इशारे पर
चलते हैं
हुक्म किसका
चलता है
इन्हें क्रियाशील बनाने में
एक्टिव रोल
किसका होता है
क्या मन का
x x x
मन दिखाई नहीं देता
वह पारदर्र्शी नहीं
पर मन
सबको नचाता है
इन पर कंट्रोल
मन का होता है
मन के पास
अज्ञात-सूक्ष्म
कार्डलेस तरंग है
जो
ध्वनि, विद्युत से
अधिक शक्तिशाली है।
Saturday, December 20, 2008
सीमा
हर इंसान
जब सीमा लांघता है
विवाद छिड़ जाते हैं
हर को
सीमा के अंदर रहना चाहिए
x x क्ष
दो राष्ट्रों के बीच
सीमा विवाद रहता है
सीमा की रक्षा
करनी पड़ती है
झड़पें होती रहती हैं
चौकन्ना रहना पड़ता है
दुश्मन ताक में रहता है
औचक हमला कर बैठता है
x x x
हर इंसान
शांति चाहता है
पर बाहर-भीतर
वह शान्त कहां रहता है
आखिर
वह चाहता क्या है?
जब सीमा लांघता है
विवाद छिड़ जाते हैं
हर को
सीमा के अंदर रहना चाहिए
x x क्ष
दो राष्ट्रों के बीच
सीमा विवाद रहता है
सीमा की रक्षा
करनी पड़ती है
झड़पें होती रहती हैं
चौकन्ना रहना पड़ता है
दुश्मन ताक में रहता है
औचक हमला कर बैठता है
x x x
हर इंसान
शांति चाहता है
पर बाहर-भीतर
वह शान्त कहां रहता है
आखिर
वह चाहता क्या है?
Wednesday, December 17, 2008
तन्हाई
तन्हाई / एक प्रेमी का
तन्हाई में
रात-रात भर
करवटें बदलता रहा
आंसू से तकिया
भिंगोता रहा
बात कुछ नहीं थी
बेबात मासूका
रूठ गई
छान पगहा तुड़ाकर
चली गई
फोन करता हूं
रिंग होता रहा
फोन उठाती नहीं
बेबस हूं / लाचार हूं
कुछ सुहाता नहीं
कुछ भाता नहीं
आज कोर्ट की नोटिस मिली
पढ़ते ही गस खा गया
यह क्या हो गया
तलाक की नोटिस है
शेष जिन्दगी का
क्या होगा?
कहां जाऊं
क्या डूब मरूं!
समाज क्या कहेगा
कैसा नामर्द था
डूब मरा।
तन्हाई / एक प्रेमिका की
आंखें बंद
दीखता है
कुछ साफ
वैसा कुछ हो गया
बेमिसाल
संभावना के परे
हैरत में हूं
बखान ब्यौरा
सुनाकर क्या होगा
जग हंसाई होगी
पहाड़-सी जिन्दगी
तन्हाई में
अब कैसे कटेगी?
तन्हाई / एक बूढ़े की
वृद्धाश्रम
8 x 8 का कमरा
शेष जिन्दगी यहीं कटेगी
आनन्द है
भाई-बंद हैं
मिलना-जुलना होता रहता है
मुस्कान लिए सलाम-बंदगी होती है
आदान-प्रदान कुशल क्षेम का होता है
पर आधी रात को
नींद टूट जाती है
साफ दीखता है
पहले पत्नी गई
बड़ा बेटा प्लेन क्रैश में गया
दूसरा कैंसर से चला गया
उसके इलाज में
घर गया
तीसरे का संरक्षण था
वह बीबी-बच्चों के साथ
अमरीका चला गया
पांच वर्षों के लिए
खेवा खर्च मेरे लिए
आश्रम में जमा कर गया
भार मुक्त हो गया
गंगा नहा गया / हाथ झाड़ गया
टूट चुका हूं
तन्हाई में जीता हूं
मौत हाथ में नहीं
आबाद रहे यह आश्रम
मेरा नया घर।
समरस कविता संग्रह से उद्धृत
तन्हाई में
रात-रात भर
करवटें बदलता रहा
आंसू से तकिया
भिंगोता रहा
बात कुछ नहीं थी
बेबात मासूका
रूठ गई
छान पगहा तुड़ाकर
चली गई
फोन करता हूं
रिंग होता रहा
फोन उठाती नहीं
बेबस हूं / लाचार हूं
कुछ सुहाता नहीं
कुछ भाता नहीं
आज कोर्ट की नोटिस मिली
पढ़ते ही गस खा गया
यह क्या हो गया
तलाक की नोटिस है
शेष जिन्दगी का
क्या होगा?
कहां जाऊं
क्या डूब मरूं!
समाज क्या कहेगा
कैसा नामर्द था
डूब मरा।
तन्हाई / एक प्रेमिका की
आंखें बंद
दीखता है
कुछ साफ
वैसा कुछ हो गया
बेमिसाल
संभावना के परे
हैरत में हूं
बखान ब्यौरा
सुनाकर क्या होगा
जग हंसाई होगी
पहाड़-सी जिन्दगी
तन्हाई में
अब कैसे कटेगी?
तन्हाई / एक बूढ़े की
वृद्धाश्रम
8 x 8 का कमरा
शेष जिन्दगी यहीं कटेगी
आनन्द है
भाई-बंद हैं
मिलना-जुलना होता रहता है
मुस्कान लिए सलाम-बंदगी होती है
आदान-प्रदान कुशल क्षेम का होता है
पर आधी रात को
नींद टूट जाती है
साफ दीखता है
पहले पत्नी गई
बड़ा बेटा प्लेन क्रैश में गया
दूसरा कैंसर से चला गया
उसके इलाज में
घर गया
तीसरे का संरक्षण था
वह बीबी-बच्चों के साथ
अमरीका चला गया
पांच वर्षों के लिए
खेवा खर्च मेरे लिए
आश्रम में जमा कर गया
भार मुक्त हो गया
गंगा नहा गया / हाथ झाड़ गया
टूट चुका हूं
तन्हाई में जीता हूं
मौत हाथ में नहीं
आबाद रहे यह आश्रम
मेरा नया घर।
समरस कविता संग्रह से उद्धृत
Tuesday, December 16, 2008
हाय रे पानी
हाय रे पानी!
तुम्हारे बिना सब सूना
आदमी बेहाल बेकल
झगड़ा छिड़ गया
सर फूट गया
धूप, हवा, पानी
सबकी अमानत है
सृष्टि की देन है
एक का नहीं
सबका है
रोटी तो
आग पर सेंकी जाती है
पानी पर
रोटी गल जाती है
धैर्य से काम लो
रास्ता निकालो
पानी सबको चाहिए
इसके बिना कोई रह नहीं सकता
पानी का दोहन नहीं करो
यह राष्ट्रीय संपदा है
इस पर सबका अधिकार है
समानता का युग है
मिल बैठकर रास्ता निकालो
सभी नदियों को जोड़ो
अजस्र धारा बहाओ
पानी सबको मिले - सबका काम चले
सिर्फ कावेरी के लिए
क्यों झगड़ते हो
रोटी बांटकर खाओ
समरस कविता संग्रह से उद्धृत
तुम्हारे बिना सब सूना
आदमी बेहाल बेकल
झगड़ा छिड़ गया
सर फूट गया
धूप, हवा, पानी
सबकी अमानत है
सृष्टि की देन है
एक का नहीं
सबका है
रोटी तो
आग पर सेंकी जाती है
पानी पर
रोटी गल जाती है
धैर्य से काम लो
रास्ता निकालो
पानी सबको चाहिए
इसके बिना कोई रह नहीं सकता
पानी का दोहन नहीं करो
यह राष्ट्रीय संपदा है
इस पर सबका अधिकार है
समानता का युग है
मिल बैठकर रास्ता निकालो
सभी नदियों को जोड़ो
अजस्र धारा बहाओ
पानी सबको मिले - सबका काम चले
सिर्फ कावेरी के लिए
क्यों झगड़ते हो
रोटी बांटकर खाओ
समरस कविता संग्रह से उद्धृत
Monday, December 15, 2008
शब्द
शब्द
एक सेतु है
संप्रेषण है
अमर है
व्योम में
सदा विद्यमान है
एक जाल है
जंजाल है
फंसाता है
उबारता है
रक्षक है
भक्षक है
अलंकृत करता है
नंगा करता है
अभिशाप है
वरदान है।
समरस कविता संग्रह से उद्धृत
एक सेतु है
संप्रेषण है
अमर है
व्योम में
सदा विद्यमान है
एक जाल है
जंजाल है
फंसाता है
उबारता है
रक्षक है
भक्षक है
अलंकृत करता है
नंगा करता है
अभिशाप है
वरदान है।
समरस कविता संग्रह से उद्धृत
Sunday, December 14, 2008
अम्मां-मां
ममतामयी करुणामयी
दयामयी
अम्मां-मां-मां
बेटे की अम्मां
बहू की अम्मां
पोते-पोतियों की अम्मां
मेरी, तेरी, सबकी अम्मां
क्या है उनमें
हिमालय की ऊंचाई है
सागर की गहराई है
प्यार भरा है
दुलार भरा है
x x x
अम्मां इस घर में
पचास की दशक में आयीं
उस समय वह
किसी की बहू थीं
घर में सास-ससुर का संरक्षण था
ननदें थीं
दाबन में रहना था
x x x
और आज
इस शती के अंत में
अम्मां के आगे-पीछे
बहुएं हैं बेटे हैं
पोते-पोतियां हैं
घर-आंगन भरापूरा है
वह जग-जननी हैं
जीवन-यज्ञ में
आहुतियां देती रहीं
अपने को होम दिया
मन की पीड़ा
मन की व्यथा वेदना
कहें तो किससे
नीलकंठ बनकर
गरलपान करती रहीं
दोनों हाथों लुटाती रहीं
प्यार, दुलार, पुचकार
अम्मां-मां-मां।
समरस कविता संग्रह से उद्धृत
दयामयी
अम्मां-मां-मां
बेटे की अम्मां
बहू की अम्मां
पोते-पोतियों की अम्मां
मेरी, तेरी, सबकी अम्मां
क्या है उनमें
हिमालय की ऊंचाई है
सागर की गहराई है
प्यार भरा है
दुलार भरा है
x x x
अम्मां इस घर में
पचास की दशक में आयीं
उस समय वह
किसी की बहू थीं
घर में सास-ससुर का संरक्षण था
ननदें थीं
दाबन में रहना था
x x x
और आज
इस शती के अंत में
अम्मां के आगे-पीछे
बहुएं हैं बेटे हैं
पोते-पोतियां हैं
घर-आंगन भरापूरा है
वह जग-जननी हैं
जीवन-यज्ञ में
आहुतियां देती रहीं
अपने को होम दिया
मन की पीड़ा
मन की व्यथा वेदना
कहें तो किससे
नीलकंठ बनकर
गरलपान करती रहीं
दोनों हाथों लुटाती रहीं
प्यार, दुलार, पुचकार
अम्मां-मां-मां।
समरस कविता संग्रह से उद्धृत
Saturday, December 13, 2008
ये बच्चे
ये बच्चे
भावी पीढ़ी की
अमानत हैं
धरोहर हैं
देश की
पढ़ते हैं
कहां
जहां
कुछ घंटों की
प्रात: कालीन
उनकी शाला है
सच कहें तो
चरवाहाशाला है
वहां पढऩे आते हैं
बच्चे खाली पेट
शाला से छूटते ही
घर में रूखा-सूखा
कुछ खा कर
जुट जाते हैं
चरवाही में
गोबर बटोरने में
बकरियां चराने में
भाई बहनों को
संभालने में
उनका बाकी समय
ऐसे ही गुजर जाता है
समरस कविता संग्रह से उद्धृत
भावी पीढ़ी की
अमानत हैं
धरोहर हैं
देश की
पढ़ते हैं
कहां
जहां
कुछ घंटों की
प्रात: कालीन
उनकी शाला है
सच कहें तो
चरवाहाशाला है
वहां पढऩे आते हैं
बच्चे खाली पेट
शाला से छूटते ही
घर में रूखा-सूखा
कुछ खा कर
जुट जाते हैं
चरवाही में
गोबर बटोरने में
बकरियां चराने में
भाई बहनों को
संभालने में
उनका बाकी समय
ऐसे ही गुजर जाता है
समरस कविता संग्रह से उद्धृत
Thursday, December 11, 2008
वक्त
आदमी
वक्त का
गुलाम है
वक्त
ठहरता नहीं
वक्त के साथ
चलना पड़ता है
वक्त
बेरहम होता है
वक्त ने साथ दिया
तो इंसान
कहां से कहां
चला जाता है
वक्त ने साथ
नहीं दिया
तो धूल चटा देता है
वक्त की पहचान
मुश्किल है
जिसने पहचाना
पौ-बारह है
जिसने कोताही की
गया काम से
सब नहीं / कोई-कोई
वक्त को / मुट्ठी में
किये रहता है
उसके आगे-पीछे
लोग लगे रहते हैं
सिर आंखों पर
उठाये रहते हैं।
समरस कविता संग्रह से उद्धृत
वक्त का
गुलाम है
वक्त
ठहरता नहीं
वक्त के साथ
चलना पड़ता है
वक्त
बेरहम होता है
वक्त ने साथ दिया
तो इंसान
कहां से कहां
चला जाता है
वक्त ने साथ
नहीं दिया
तो धूल चटा देता है
वक्त की पहचान
मुश्किल है
जिसने पहचाना
पौ-बारह है
जिसने कोताही की
गया काम से
सब नहीं / कोई-कोई
वक्त को / मुट्ठी में
किये रहता है
उसके आगे-पीछे
लोग लगे रहते हैं
सिर आंखों पर
उठाये रहते हैं।
समरस कविता संग्रह से उद्धृत
Tuesday, December 9, 2008
मुरादें
बृद्ध पिता ने बेटा को फोन किया, 'हम दोनों बारह बजे दिन में पहुंचेंगे।'
बेटा ने जवाब दिया, 'तो क्या मैं नौकरी छोड़ दूं।'
पिता स्तब्ध हो गए। कहा, 'नहीं, नहीं, बेटा नौकरी क्यों छोड़ोगे? ' कहो, 'कब यहां से चलूं। बस में चार घंटे लगते हैं।'
बेटा ने जवाब दिया, 'आप ऐसा चलें कि उस समय तक घर पर बच्चे स्कूल से आ जाएं।'
बस पर हम दोनों को नाती ने चढ़ा दिया। बिदा किया। टिकट कटा दिया। बस खुल गई। पहचाना रास्ता था। बचपन से इस रास्ते पर चलता रहा हूं। उस समय गांधी सेतु कहां था? छपरा से सोनपुर, सोनपुर से घटही गाड़ी से पहलेजा घाट। पहलेजा घाट से महेन्द्रू। जहाज पर गंगा नदी पार करना पड़ता था। कभी उफनती और मंद गति से बहने वाली गंगा के दर्शन। जहाज पर चढऩे के पहले, हम एक डुबकी गंगा में अवश्य लगा लिया करते थे।
कभी कुशासन काल में स्टेट बस बंद हो गई थी। सुशासन काल में स्टेट बस पुन: चालू हो गई है। नन स्टॉप बस पर नाती ने चढ़ाया था। देखते-देखते हाईवे से गंडक नदी पार कर हाजीपुर की परिक्रमा करते हुए गांधी सेतु पर बस आ गई। गाय घाट और पटना सिटी के पैसेंजरों को उतारते हुए बस पटना बाई पास होकर इनकम टैक्स के पास आ गई। वहीं उतरने को कहा गया था। कंडक्टर ने सामान उतारने में मदद की। पत्नी उतर चुकी थीं। सुखद आश्चर्य देखकर हुआ कि बेटा आ गए थे। हम दोनों की दिनों दिन विवशता और लाचारी बढ़ती जा रही है। इसी का खयाल कर बेटा ने सोचा होगा कि नहीं मुझे मुकाम पर रहना चाहिए। हमने सोचा, शायद रिक्शा पर बेटा ले जाएगा। पर नहीं, अपनी कार से आया था। कार पर बिठाकर ले गया।
हमारा एक सपना यह भी था कि हमारे बुढ़ापे में बेटे उस औकात के हो जाते कि वे अपनी गाड़ी से रिसीव करने आते और रेल गाड़ी पर चढ़ाने के लिए स्टेशन पहुंचाते। आज वही हो रहा है।
मन की मुरादें किसी की पूरी हों।' सपना साकार होता रहे तो खुशियों का अंबार लग जाता है।
बेटा ने जवाब दिया, 'तो क्या मैं नौकरी छोड़ दूं।'
पिता स्तब्ध हो गए। कहा, 'नहीं, नहीं, बेटा नौकरी क्यों छोड़ोगे? ' कहो, 'कब यहां से चलूं। बस में चार घंटे लगते हैं।'
बेटा ने जवाब दिया, 'आप ऐसा चलें कि उस समय तक घर पर बच्चे स्कूल से आ जाएं।'
बस पर हम दोनों को नाती ने चढ़ा दिया। बिदा किया। टिकट कटा दिया। बस खुल गई। पहचाना रास्ता था। बचपन से इस रास्ते पर चलता रहा हूं। उस समय गांधी सेतु कहां था? छपरा से सोनपुर, सोनपुर से घटही गाड़ी से पहलेजा घाट। पहलेजा घाट से महेन्द्रू। जहाज पर गंगा नदी पार करना पड़ता था। कभी उफनती और मंद गति से बहने वाली गंगा के दर्शन। जहाज पर चढऩे के पहले, हम एक डुबकी गंगा में अवश्य लगा लिया करते थे।
कभी कुशासन काल में स्टेट बस बंद हो गई थी। सुशासन काल में स्टेट बस पुन: चालू हो गई है। नन स्टॉप बस पर नाती ने चढ़ाया था। देखते-देखते हाईवे से गंडक नदी पार कर हाजीपुर की परिक्रमा करते हुए गांधी सेतु पर बस आ गई। गाय घाट और पटना सिटी के पैसेंजरों को उतारते हुए बस पटना बाई पास होकर इनकम टैक्स के पास आ गई। वहीं उतरने को कहा गया था। कंडक्टर ने सामान उतारने में मदद की। पत्नी उतर चुकी थीं। सुखद आश्चर्य देखकर हुआ कि बेटा आ गए थे। हम दोनों की दिनों दिन विवशता और लाचारी बढ़ती जा रही है। इसी का खयाल कर बेटा ने सोचा होगा कि नहीं मुझे मुकाम पर रहना चाहिए। हमने सोचा, शायद रिक्शा पर बेटा ले जाएगा। पर नहीं, अपनी कार से आया था। कार पर बिठाकर ले गया।
हमारा एक सपना यह भी था कि हमारे बुढ़ापे में बेटे उस औकात के हो जाते कि वे अपनी गाड़ी से रिसीव करने आते और रेल गाड़ी पर चढ़ाने के लिए स्टेशन पहुंचाते। आज वही हो रहा है।
मन की मुरादें किसी की पूरी हों।' सपना साकार होता रहे तो खुशियों का अंबार लग जाता है।
Friday, December 5, 2008
बोलती बंद
गफूर भाई तेज तर्रार किस्म के आदमी हैं। लोग उनकी उम्र पूछते हैं, "दादा हो, आपकी उम्र क्या हुई।" तपाक से कह बौठते हैं, "जरा तू ही बता, मेरी उम्र क्या हो सकती है?" "बड़का भूकम्प के वख्त आप कित्ते साल के थे।" "उस वख्त की बात करते हो, दो जमात पास कर गया था।"
"दादा, गजब की बात करते हो!"
"क्या हुआ बे!"
"दो जमात से बात कहां खुलती है कि आप कित्ते बरस के थे।"
"ओ! तो तुम उमर जानना चाहता है। अब समझा। यही बारह-चौदह साल का होगा।"
फिर गफूर भाई बुदबुदाते हुए आगे बढ़ गए। कम्बखत सब उमर पूछते रहता है। क्या बूढ़ा होना गुनाह होता है। आज बच्चा पैदा होता है, बड़ा होता है। जवान होता है। तालीम हासिल करता है। निकाह होता है। नौकरी लग जाती है। अपनी औलाद की परवरिश करता है। उसी तरह तुम भी बूढ़ा होगा। बच्चा, बूढ़ा, यह सिलसिला तो लगा है।
छड़ी टेकते, घर की ओर डेग भरते हुए, गफूर भाई बढ़ते जा रहे थे। पाकेट में पैसा टटोला। खुशी हुई। "अमां, यार अपने को कहा। तो क्या कुछ हो जाय। "सुधा" का काउंटर आगे आ रहा था। रहमत भाई, सुधा काउंटरवाले उनको देख रहे थे। टोक दिया। "भाई जान, कहां गए थे। अकेले चलते हैं। किसी बच्चे को संग क्यों नहीं कर लिया?" इस पर आव देखा न ताव। उस पर गफूर भाई, बिगड़ बैठे।
गजब के तुम हो? तुम्हारा जर्जर बदन देखकर कोई चेताता है। रहमत भाई ने तुम्हारी भलाई की बात की है। और तुम बिगड़ बौठे, उन पर।
जाने दो, देखो रहमत भाई से पूछो न, क्या सब है! रहमत भाई से रू-ब-रू होते ही पूछ बैठे, "क्या सब है?"
"सब कुछ है।" रहमत भाई का जवाब मिला।
फिर गफूर भाई की मजबूरी का आलम आ खड़ा हुआ। ससुरी सरकार जहां-तहां अपने " सुधा" सेल पाइंट काउंटर एक ही डिजाइन की बनाती है। राजधानी से छोटे बड़े शहर तक फैला रखी है। इसके ब्रांड की तारीफ गुनते रहे। कमाल का पेड़ा होता है। पांच से लेकर चौदह रूपये तक का, स्ट्राबेरी का आइसक्रीम। रसगुल्ला, दही, लस्सी..
गफूर भाई की मजबूरी रहमत मियां ताड़ गए। रूकिये मैं आ जाता हूं। और गफूर भाई का हाथ पकड़ कर ऊपर ओटे पर चढ़ा लिया। गफूर भाई एक ओर खड़े थे। दो ग्राहक आ गए। एक ने एक लीटर दूध की मांग की। पाकेट से नंबरी निकाला। इस पर रहमत मियां ने तपाक से कहा। "नंबरी का खुदरा नहीं है। चट से ग्राहक ने कहा, "पचास देता हूं।" दूध लिया खुदरा वापसी में रहमत भाई ने दो टॉफी, नोट और सिक्का दिया था।
"दूध का कित्ता पइसा काटे।"
"चौदह रुपये।"
"ज्यादा क्यों?"
"दाम बढ़ गया है।" वह वापसी पैसे को मिलाने लगा। दस का नोट तीन है, एक पांच का है। "कित्ता हुआ?" रहमत भाई ने पूछा।
"पैंतीस।" उस लड़के ने कहा।
"ठीक है, और दो टॉफी का दाम एक रुपया। हुआ न छत्तीस।"
उसके बाद दूसरे ग्राहक से निबटने के बाद गफूर भाई से पूछा, "आपको क्या चाहिए?"
"लस्सी।"
"नहीं है।"
"पेड़ा ले लें, चौदह का है।"
गफूर भाई रूक गए।
"फिर आइसक्रीम है, पांच, दस और चौदह का।" रहमत भाई ने कहा।
"दस का दे दो।" गफूर भाई बोले। रहमत भाई ने दस का आईसक्रीम आगे किया। प्लास्टिक का चम्मच दिया। फिर गफूर भाई बिफर पड़े। रहमत भाई से पूछा। यहां-वहां चिपटा हुआ आइसक्रीम का खाली कप। लगता है चादर सफेद बिछी है। डस्ट बिन क्यों नहीं रखते? गफूर भाई ने सवाल रक्खा!
क्या करें साहब। मुख्यमंत्री का बेल्ट है। गली, कूची सब बन गया है। यह रास्ता फ्रोफेसर कॉलोनी जाती है। यहां के लोग जदयू के नहीं हैं। यहां नगरपालिका का झाड़ू देनेवाला भी नहीं आता है।
गफूर भाई के नहाने का वक्त हो रहा था। बाल बनाने गए थे। गप्प भी चल रहा था। आइसक्रीम चाट गए। छड़ी हाथ में ली। ओटा से उतर गए। फिर आगे कदम-ब-कदम डेग बढ़ाते हुए घर की ओर जा रहे थे।
फिर भीतर की आवाज आई, तुम्हारा चटोरपन गया नहीं। चौदह का पेड़ा ले लेते तो घर भर खाते।
सैलून से हजामत बनाकर लौटे हो। बीवी जान को जवाब देना। वहां भी हजामत बनेगी।
घंटी बजाई। किवाड़ खुला। पंखा खोलकर बैठ गए। उधर से पोते-पोतियां आईं। बीवी जान आईं । पूछा, "कुछ लाये नहीं!" गफूर भाई की घिग्घी बंध गई।
"दादा, गजब की बात करते हो!"
"क्या हुआ बे!"
"दो जमात से बात कहां खुलती है कि आप कित्ते बरस के थे।"
"ओ! तो तुम उमर जानना चाहता है। अब समझा। यही बारह-चौदह साल का होगा।"
फिर गफूर भाई बुदबुदाते हुए आगे बढ़ गए। कम्बखत सब उमर पूछते रहता है। क्या बूढ़ा होना गुनाह होता है। आज बच्चा पैदा होता है, बड़ा होता है। जवान होता है। तालीम हासिल करता है। निकाह होता है। नौकरी लग जाती है। अपनी औलाद की परवरिश करता है। उसी तरह तुम भी बूढ़ा होगा। बच्चा, बूढ़ा, यह सिलसिला तो लगा है।
छड़ी टेकते, घर की ओर डेग भरते हुए, गफूर भाई बढ़ते जा रहे थे। पाकेट में पैसा टटोला। खुशी हुई। "अमां, यार अपने को कहा। तो क्या कुछ हो जाय। "सुधा" का काउंटर आगे आ रहा था। रहमत भाई, सुधा काउंटरवाले उनको देख रहे थे। टोक दिया। "भाई जान, कहां गए थे। अकेले चलते हैं। किसी बच्चे को संग क्यों नहीं कर लिया?" इस पर आव देखा न ताव। उस पर गफूर भाई, बिगड़ बैठे।
गजब के तुम हो? तुम्हारा जर्जर बदन देखकर कोई चेताता है। रहमत भाई ने तुम्हारी भलाई की बात की है। और तुम बिगड़ बौठे, उन पर।
जाने दो, देखो रहमत भाई से पूछो न, क्या सब है! रहमत भाई से रू-ब-रू होते ही पूछ बैठे, "क्या सब है?"
"सब कुछ है।" रहमत भाई का जवाब मिला।
फिर गफूर भाई की मजबूरी का आलम आ खड़ा हुआ। ससुरी सरकार जहां-तहां अपने " सुधा" सेल पाइंट काउंटर एक ही डिजाइन की बनाती है। राजधानी से छोटे बड़े शहर तक फैला रखी है। इसके ब्रांड की तारीफ गुनते रहे। कमाल का पेड़ा होता है। पांच से लेकर चौदह रूपये तक का, स्ट्राबेरी का आइसक्रीम। रसगुल्ला, दही, लस्सी..
गफूर भाई की मजबूरी रहमत मियां ताड़ गए। रूकिये मैं आ जाता हूं। और गफूर भाई का हाथ पकड़ कर ऊपर ओटे पर चढ़ा लिया। गफूर भाई एक ओर खड़े थे। दो ग्राहक आ गए। एक ने एक लीटर दूध की मांग की। पाकेट से नंबरी निकाला। इस पर रहमत मियां ने तपाक से कहा। "नंबरी का खुदरा नहीं है। चट से ग्राहक ने कहा, "पचास देता हूं।" दूध लिया खुदरा वापसी में रहमत भाई ने दो टॉफी, नोट और सिक्का दिया था।
"दूध का कित्ता पइसा काटे।"
"चौदह रुपये।"
"ज्यादा क्यों?"
"दाम बढ़ गया है।" वह वापसी पैसे को मिलाने लगा। दस का नोट तीन है, एक पांच का है। "कित्ता हुआ?" रहमत भाई ने पूछा।
"पैंतीस।" उस लड़के ने कहा।
"ठीक है, और दो टॉफी का दाम एक रुपया। हुआ न छत्तीस।"
उसके बाद दूसरे ग्राहक से निबटने के बाद गफूर भाई से पूछा, "आपको क्या चाहिए?"
"लस्सी।"
"नहीं है।"
"पेड़ा ले लें, चौदह का है।"
गफूर भाई रूक गए।
"फिर आइसक्रीम है, पांच, दस और चौदह का।" रहमत भाई ने कहा।
"दस का दे दो।" गफूर भाई बोले। रहमत भाई ने दस का आईसक्रीम आगे किया। प्लास्टिक का चम्मच दिया। फिर गफूर भाई बिफर पड़े। रहमत भाई से पूछा। यहां-वहां चिपटा हुआ आइसक्रीम का खाली कप। लगता है चादर सफेद बिछी है। डस्ट बिन क्यों नहीं रखते? गफूर भाई ने सवाल रक्खा!
क्या करें साहब। मुख्यमंत्री का बेल्ट है। गली, कूची सब बन गया है। यह रास्ता फ्रोफेसर कॉलोनी जाती है। यहां के लोग जदयू के नहीं हैं। यहां नगरपालिका का झाड़ू देनेवाला भी नहीं आता है।
गफूर भाई के नहाने का वक्त हो रहा था। बाल बनाने गए थे। गप्प भी चल रहा था। आइसक्रीम चाट गए। छड़ी हाथ में ली। ओटा से उतर गए। फिर आगे कदम-ब-कदम डेग बढ़ाते हुए घर की ओर जा रहे थे।
फिर भीतर की आवाज आई, तुम्हारा चटोरपन गया नहीं। चौदह का पेड़ा ले लेते तो घर भर खाते।
सैलून से हजामत बनाकर लौटे हो। बीवी जान को जवाब देना। वहां भी हजामत बनेगी।
घंटी बजाई। किवाड़ खुला। पंखा खोलकर बैठ गए। उधर से पोते-पोतियां आईं। बीवी जान आईं । पूछा, "कुछ लाये नहीं!" गफूर भाई की घिग्घी बंध गई।
Thursday, December 4, 2008
हसीना
ये गेसू
ये झुमके
ये बिंदिया
ये बेसर
ये खनकती चूडिय़ां
ये चांद-सा मुखड़ा
ये हिरणी सी आंखें
ये छरहरा बदन
ये सलवार
ये चुन्नी
चालों में शोखी
दिल धडक़ता है
मन करता है
तमन्ना होती है
एक बोसा ले लूं
तुम पर निसार हो जाऊं
समरस कविता संग्रह से
ये झुमके
ये बिंदिया
ये बेसर
ये खनकती चूडिय़ां
ये चांद-सा मुखड़ा
ये हिरणी सी आंखें
ये छरहरा बदन
ये सलवार
ये चुन्नी
चालों में शोखी
दिल धडक़ता है
मन करता है
तमन्ना होती है
एक बोसा ले लूं
तुम पर निसार हो जाऊं
समरस कविता संग्रह से
Wednesday, December 3, 2008
आज का आदमी
क्या हो गया आज के आदमी को!
बाहर कुछ भीतर कुछ
करता कुछ बोलता कुछ
समझता कुछ
यह अन्तर क्यों!
आदमी खतम हो गया!
नहीं, कौन कहता है!
हर कोई कहता है
अपने को छोडक़र, कहता है।
मैं ठीक हूं, दुनिया बदल गयी।
नहीं, दुनिया जगह पर है
फिर आदमी!
आत्मघाती हो गया / विश्वासघाती हो गया
पीठ पीछे छूरा भोंकता है।
क्या यही आदमी है!
हां आज का
आदमी यही है!
उसे कौन बदलेगा!
भगवान बदलेगा!
भगवान है कहां!
क्या वह सदेह है!
नहीं, निराकार है।
फिर, निराकार तो कुछ नहीं कर सकता!
यह कहना गलत है कि निराकार कुछ नहीं कर सकता।
तो क्या ठीक है!
भीतर का आदमी, आदमी को बदल सकता है।
समरस, कविता संग्रह की पहली कविता
बाहर कुछ भीतर कुछ
करता कुछ बोलता कुछ
समझता कुछ
यह अन्तर क्यों!
आदमी खतम हो गया!
नहीं, कौन कहता है!
हर कोई कहता है
अपने को छोडक़र, कहता है।
मैं ठीक हूं, दुनिया बदल गयी।
नहीं, दुनिया जगह पर है
फिर आदमी!
आत्मघाती हो गया / विश्वासघाती हो गया
पीठ पीछे छूरा भोंकता है।
क्या यही आदमी है!
हां आज का
आदमी यही है!
उसे कौन बदलेगा!
भगवान बदलेगा!
भगवान है कहां!
क्या वह सदेह है!
नहीं, निराकार है।
फिर, निराकार तो कुछ नहीं कर सकता!
यह कहना गलत है कि निराकार कुछ नहीं कर सकता।
तो क्या ठीक है!
भीतर का आदमी, आदमी को बदल सकता है।
समरस, कविता संग्रह की पहली कविता
Tuesday, December 2, 2008
Monday, December 1, 2008
इधर
जिस मुकाम तक
पहुंचे हो
चाहते क्या हो
दुनिया को मुट्ठी में
करने की ख्वाहिश
तुम्हारे डेग नहीं उठते
सीढ़ी चढ़ नहीं सकते
सहारा ढूंढ़ते हो
ताकते रहते हो
दौड़ कर आता है
एक अदद कोई
पोता, पोती, बहू
बेटा
निहाल हो जाते हो
पहुंचे हो
चाहते क्या हो
दुनिया को मुट्ठी में
करने की ख्वाहिश
तुम्हारे डेग नहीं उठते
सीढ़ी चढ़ नहीं सकते
सहारा ढूंढ़ते हो
ताकते रहते हो
दौड़ कर आता है
एक अदद कोई
पोता, पोती, बहू
बेटा
निहाल हो जाते हो
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