बचपन में
तांबे का ढेबुआ देखा
अधेला देखा
आधा आना, एक आना
चवन्नी, अठन्नी
एक रुपये का सिक्का देखा
वे अब चलन में नहीं हैं
क्यों?
ये सारे गुलामी के दौर के सिक्के थे
हम आजाद हैं
प्रजातंत्र में जीते-मरते हैं
इसका बचपन गया
जवानी आई-गई
दशमलव के सिक्के आये
आलमुनियम के दो, पांच, दस
बीस, पचीस, पचास के सिक्के
अवमूल्यन नहीं झेल पाये
पचीस, पचास का सिक्का
चल रहा था
वे भी चले गये
बड़े वेग से मनी वैल्यू
घटती गयी
रुपया वैल्यू डॉलर/पौंड से
आंकी जाने लगी
फिर मानव-मूल्य क्या रहा
हमारा-आपका रुतबा कहां गया
गली-कूची, राह चलते
जो दर्जा सम्मान मिला था
चला गया
क्यों गया!
हम भोथड़े हो गए
कुंद हो गए
आदमी के अंदर की करुणा
दया आदमियत
खतम हो गई
आज वैसी जिन्दगी के तराने
गाने में मशगूल हैं
थोड़ा रूक कर
सोचिए आप कहां हैं?
आपको कैसे तौला जाए
आपका मूल्य कैसे बढ़ेगा?
कद कैसे उठेगा?
Tuesday, January 27, 2009
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