चिडिय़ा
घोंसला बनाती है
आदमी
घर बनाता है
उद्देश्य
दोनों के समान
चिडिय़ा शाम होते ही
अपने घोंसलों में
घुस जाती हैं
आदमी के घर
लौटने का ठिकाना नहीं
पर
वह भी
जब घर लौटता है
बंद दरवाजे पर दस्तक देता है
स्विच दाबता है घंटी बजती है
प्रतीक्षा में जगी पड़ी बीवी
दरवाजा खोलती है तो
दोनों के मिलन का वह क्षण
कितना सुखद होता है
ऐसा प्राय: सबको
नसीब में मिला होता है
किन्तु जिस घर में
घुसते ही झिड़कियां मिलती हों
कैफियत तलब हो जाए
दरवाजे पर ही उस मर्द को
वह घर कैसा लगता होगा
घर काटता भी है
नसीब अपना-अपना होता है।
Saturday, January 10, 2009
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1 comment:
सही कहा-उम्दा रचना!!
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