जाड़े की जवानी
पूस माघ के महीने
गेहूँ तोरी के
झूमते पौधे
ठिठुरती आलू की
हरी-हरी क्यारियां
विवशता में कोहरे से
गलबांही को मजबूर
भयभीत/कहीं
बलात्कार न कर जाए
पाला न झुलसा जाए
बचाव में जुटा
उसे बोनेवाला
धूल-धूसरित
ठंढ में ठिठुरता
उपचार में जुटा
कभी इन्डोफिल का छिड़काव
कभी अन्य उपचार
घबराया-घबराया
कभी कृषि विशेषज्ञों के पास
कहीं जमा पूँजी
डूब न जाए।
Friday, February 22, 2008
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2 comments:
वाह वाह वाह. सुखदेवजी आपने कमाल कर रखा है. आपको मेरा सलाम. यह अवस्था और यह उत्साह...क्या कहने! मैंने अब तक यहाँ जारी सभी कविताएँ पढीं और मुदित हुआ. आप से अनुरोध है कि आप अपने जीवन के कुछ निचोड भी यहाँ कविताओं या फिर टिप्पणियों की शक्ल में रखें. पुराने जीवन-मूल्यों और नये से उनके टकरावों पर आपका क्या कहना है? जीवन में सुख-संतोष और जीवन से अपेक्षाओं पर भी आपकी राय जानना रोचक और समृद्ध करने वाला होगा. आप स्वस्थ रहें और प्रसन्न भाव से साहित्य सृजन करते रहें यही कामना है.
कविता खांटी देहाती है, बहुत अच्छी लगी।
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