कल को धर्म पत्नी
संगिनी संग सहविस्तर
चलता रहा
इन्द्रियां शिथिल हो गयीं
मेरी भूख-उसकी भूख
चली गई,ख़त्म हो गई
वह अलग मैं अलग
* * *
उन दिनों उसका मुंह
नही खुलता था
औलादें देती रही
घर-आँगन संभालती रही
डर-सहमी रहती थी
अच्छा बुरा
सब झेलती रही ।
* * *
इस बुढ़ापे में
उससे झेला नहीं जाता
निर्भीक हो गई है।
अब डर काहे का
उसका मुंह खुल गया है
जैसे
घोंगा का मुंह खुल जाता है
अनाप-शनाप
बेधड़क बोलती रहती है
व्यंग वाण
छोड़ती रहती है
तार तार कर देती है
बच्चे देखते रहते हैं
सुनते रहते हैं
मुस्कराते रहते हैं।
हम दोनों के बीच कोई नहीं आता
मैंने अब सोच लिया है
तुम बोलो,खूब बोलो
मैं चुप रहूँगा।
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