Wednesday, February 13, 2008

संकीर्णता

यों समय बदलता जा रहा है.फिर भी घर-परिवार की महिलाएं संकीर्णता और उंच-नीच के प्रति दोहरी नीति से उबार नहीं पायीं हैं।
उस दिन की बात है.परिवार के ही एक गूंगे लड़के ने घर से गिलास में पानी लाकर दलित जाती के मजदूर को दे दिया ,जिसके लिए केले के पत्ते पर खिचड़ी परोसी गई थी.खिचड़ी उसके लिए अलग से पकाई भी गई थी,जबकि चौके में उस दिन अच्छा खाना पका था.घर-परिवार के बर्तनों में बुढिया मालकिन के सामने बहु चाह कर भी वैसे मजदूर को घर की थाली में भोजन परोस कर नहीं दे सकती थी।
मालकिन जब बाहर निकलीं तो उनकी नज़र उस गिलास पर पड़ी,जिसमें उस मजदूर को पानी दिया गया था .वह दहारने लगीं की मेरे गिलास में उसे पानी किसने दिया।
उन्हें कहा गया की रामदेव पापा ने दिया है तो वह उस पर बिफर पड़ीं.तत्काल उस गिलास को उनहोंने फ़ेंक दिया और कहा की गिलास एक दलित ने जूठा कर दिया।
उस समय वह मजदूर चांपाकल पर अपना हाथ मुंह धो रहा था.घर की बूढ़ी मालकिन की आवाज उसके कानों तक गई.पलट कर उसने कहा,'माई जी!हममे गिलास मुंह नै लगैले छलों।'
फिर बारी में आम के पेड़ के नीचे बैठ कर उसने अपने बटुआ से सुपारी निकली,कतर कर मुंह में डाला और एक बीडी सुलगा कर पीने लगा।
जब शाम होने को आई तो घर के मालिक से उसने मजदूरी ली और अपने घर की ओर चल पड़ा.उसे आठ किलोमीटर की दूरी तय करनी थी.ताबड़तोड़ साइकिल चलाता गया।
वह मजदूर हफ्ता में एक दिन अभी भी आता है.उसके झोला में लोटा रहता है.उसमें वह पानी टू स्वाभिमान से पी लेता है.पर उसे खाने के समय केले का पत्ता लेन को कहा जाता है तो वह मन ही मन सोचता है,'क्या मैं इस घर की थाली में खाने का अधिकारी नहीं हूँ.'

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