Saturday, February 16, 2008

मेरा घर

घर में पाँव रखते ही
बड़ा अच्छा लगता है
मेरा कमरा/सबसे बड़ा कमरा
बाबूजी का कमरा/कहलाता है
बाबूजी इस कुनबे के
सिरमौर हैं
बूढ़े हो गए हैं
* * *
बीस वर्षों में यह घर बना है
चार कमरे हैं
चार सपूतों के निमित्त
बनाया था
बाबूजी ने अपने को
माइनस कर रखा था।
किंतु आज विडंबना
कुछ और है
हो कुछ और गया
सारे बेटों ने अपना-अपना
आशियाना महानगरों
बना लिया।
अपना घोंसला ही
अच्छा लगता है।
बड़ा सा यह घर
भांय भांय लगता है
हम्दोनों ही
घर में
जी रहे हैं।

2 comments:

anuradha srivastav said...

आपकी ऊर्जा को प्रणाम .... दिल को छू लेने वाली रचना।

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर कविताएँ । परन्तु जन्म देने से पहले ही हमें पता होता है कि बच्चे चिड़िया के बच्चों समान होते हैं । जब पंख सुदृढ़ हो जाएँगें तो उड़ कर नया आकाश ढूँढेंगे व नये घोंसले बनाएगें । उनके ऐसा करने में ही हमारे लालन पालन की सफलता है ।
घुघूती बासूती