कुमुद बाबू के यहाँ नाश्ता कर के राघव जी से मिलने गया.संयोग अच्छा था,घर पर मिल गये.अपनी उपलब्धियों की चर्चा करते हुए, सद्यः प्रकाशित 'इन्द्रधनुष' कविता संग्रह उन्हें देखने को दे दिया.वे उलटते-पलटते रहे.मैं अपनी बातें उनके कानों में डालता रहा।
बात आई कि कैसे यहाँ के साहित्यकारों के हाथों में मेरी यह किताब पहुँचेगी और उस पर मेरी मौजूदगी में चर्चा हो जैसा आज तक कहीं नहीं हो पाया हो।
राघव जी ने कहा कि आप कल का समय रखें.आठ प्रतियाँ 'इन्द्रधनुष'की रख जाएँ.कल शाम को पांच बजे अपने यहाँ ,अपने लोगों को बुलाऊंगा,आपके सामने किताबें उन्हें मिल जायेंगी और एक मिलना-जुलना हो जाएगा।
ऑफिस जाने का उनका वक़्त हो रहा था.चलते-चलते मैंने उनसे 'संवदिया'के संपादक भोला पादित प्रणयी के ठौर-ठिकाना के बारे में पूछा.उनहोंने एक संकेत दिया,जयप्रकाश नगर के पश्चिम सीमा पर ही उनका छोटा सा निर्माण होगा,एक झोंपड़ी होगी।
राघव जी के घर से निकलने पर मुख्य सड़क पर ही एक रिक्शा मिल गया.रिक्शा चालक से जहाँ जाना है,उस स्थान का ब्योरा बता दिया।
वह चलने को तैयार हो गया.अक्सर रिक्शा पर बैठने के पूर्व मैं हर रिक्शा चालक से भाड़ा तय कर लिया करता हूँ ताकि रिक्शा से उतरने पर भाड़ा को लेकर नोक-झोंक न हो रिक्शा चालक के साथ नहीं हो.चालक ने कहा मुनासिब भाड़ा आप दे देंगे.बैठिये।
मैंने कहा,जिनके यहाँ जा रहा हूँ,वे जो कह देंगे,वही मुनासिब भाड़ा होगा.नई जगह पर किसी भी तलाश में आगे-पीछे कुछ हो जाता है.सही लोकेशन पर पहुँचने में वही हुआ.घरवासी,मानी भोला पंडित प्रणयी के डेरा के आगे रिक्शा से उतर रहा था,तब तक प्रणयी आ गए.उन्होंने कहा ,आप इन्हें पंद्रह रुपये दे दें.चालक अड़ गया कि मुनासिब भाड़ा मेरा अठारह रुपये होता है.नोक-झोंक चलने लगा.मैं पंद्रह पर अदा रहा,क्योंकि साफ वह कह चुका था,घरवासी जो कहेंगे वही मुनासिब भाड़ा होगा।
इस नोक-झोंक के बीच चालक ने कहा,'कुछ मत दीजिए.'मैंने कहा,'ऐसा kyon?'मैं और प्रणयी पक्षधर थे कि चालक को पंद्रह ही दिए जाएँ.उस समय मैं रिक्शा चालक को आप कहना भूल गया.जैसा कि मुख्य मंत्री का एलान है कि मजदूर वर्ग को तुम न कह कर.आप कहा करें.आदतन मजदूर को तुम ही कहा जाता रहा है.अंत में झख मार कर चालक ने पांच का सिक्का वापस किया,क्योंकि उसे दस के दो नोट दे चुके थे।
रिक्शा चालक लौटते हुए कुछ अनाप-शनाप बातें बोलता चला जा रहा था कि मजदूर को लोग सही मजदूरी लोग नहीं देंगे.और अपनी मौज-मस्त में सैकड़ों खर्च कर देंगे.उनका गरीबों के साथ ऐसा ही चलता रहेगा।
मैं सुनता रहा.मेरा विवेक जगा.अपने से पूछना चाह,चालक को उसके मन मुताबिक अठारह दे देता,तो इतना वाकयुद्ध नहीं होता.मेरे लिए तीन रुपये अधिक देने से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं.आये दिन कभी-कभी जिद्द और प्रतिस्थामूलक जद्दोजहद हो ही जाता है.
Sunday, February 10, 2008
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