Sunday, February 17, 2008

वर्षों बाद

इस बार
फँस गया
भोगने को जाड़ा
सुदूर
उत्तर बिहार के
एक गाँव में
जहाँ
आज भी
बिजली नहीं
ढिबरी जलती है
रात में
एक लालटेन भी नहीं
घूरा
अलाव जलते ही
जुट जाते हैं
नंग-धड़ंग
छोट-छोटे बच्चे
घूरा के चारों ओर
सांझ सवेरे
उनके बदन पर
मैली-कुचैली
फटी
गंजी है.तो क्या?
मैं अपने घर में
बंद हो जाता हूँ
अपनी कोठी में
जनरेटर चालू होता है
रौशनी बहर भीतर
फैल जाती है
हीटर चालू होता है
लांग कोट पहन लेता हूँ
टोपी मोजा डाल
लेता हूँ
रिमोट के सहारे
आराम से देखता हूँ
चुनावी दंगल
बदलते चैनलों में
रंग बिरंगे प्रोग्राम।

No comments: