जिन्दगी एक धरोहर है
अमूल्य निधि है
इस पर अधिकार
क्या सिर्फ मेरा ही है।
जैसे मैं चाहूं
वैसे मनमानापन
इसके साथ करता रहूं।
लगता है
सब कुछ कल की बात है
जिन्दगी का चतुर्थांश
तो मां-बाप के साया में
पला बढ़ा
आदमी बनाने का श्रेय उन्हीं का था।
उनके लिए
हमने क्या किया!
प्रतिदान को उन ने
चाहा नहीं
इस लंबी जिन्दगी में
बहुतों से संग-छुट गया
कुछ रूठ गए
कुछ भगवान के प्यारे हो गए
आज अकेले खड़ा हूं
मंजिल दिखाई देती है
चौथेपन की जिन्दगी का
क्या भरोसा!
कब चली जाए
क्या अभी मुझे
सपना देखना चाहिए
कि
यह कर लूं! वह भी कर लूं!
चाहत की कोई सीमा नहीं होती।
Monday, February 23, 2009
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