पटना पहुंचने पर उस दिन अवध बिहारी बाबू को उनके मोबाइल नंबर पर रिंग किया और अपना नाम बतलाया और पूछा, 'अवध बिहारी बाबू हैं!'
उधर से जवाब आया, 'मैं मीनी उनकी बेटी बोल रही हूं। वे तो पिछले दिनों गुजर गए। श्राद्ध भी हो गया। जिस नंबर पर आप बात कर रहे थे। वह मोबाइल मेरा ही था।
तुरंत मैंने फोन रख दिया। और इस वर्ष का उस दिन को याद किया जब अवध बाबू की तलाश में चांदमारी रोड न. 3 पर बुद्ध नगर में दिनेश्वर प्रसाद के मकान की तलाश में यहां-वहां भटक रहा था। एक जगह रिक्शा रोक कर बाहर बैठी एक महिला से पूछा, क्या दिनेश्वर प्रसाद का यही मकान है? अवध बिहारी बाबू यहां रहते हैं!' उधर से जवाब मिला, 'हां।' और वह महिला अवध बिहारी बाबू की पत्नी ही थीं।'
वह मुझे भीतर ले गईं। एक तंग रास्ते से कई कमरों के बाद एक छोटा-सा कमरा मिला। अवध बिहारी मिले और वे मुझे देखते ही विफर पड़े। बोले, 'बच्चा भइया।'
उनकी मनोदशा देखकर मैं मन ही मन द्रवित हुआ। पास पड़ी खाली कुर्सी पर मैं बैठ गया। वे अपने बारे में एक थैरेपी वाले से राय परामर्श की बातें कर रहे थे। उस आदमी के जाने के बाद उन्हें 'इन्द्रधनुष' की एक प्रति भेंट की। तुरंत ही उन्होंने एक अखबार के कतरन पर कुछ लिखकर मेरे बारे में दिया। जो इस प्रकार है '...नारायण शुकदेव बन... आनन्द पथ पर लिये चलें।'
सामान्यत: मेरी हर किताब पर उन्होंने अपने उद्गार लिखकर दिये हैं। मैं उन्हें अपनी फाइल में सुरक्षित रख छोड़ा है। यथा समय उसका उपयोग करने के खयाल से।
ज्यादातर इस वर्ष 2007 में घर पर ही रहा हूं। वीरपुर में उनका कुशल क्षेम उनके मित्र एस एन प्रसाद के घर जाकर उनके फोन पर अवध बिहारी बाबू का हाल चाल लिया करता था।
इसी वर्ष उनके एक मित्र, बी एन दत्त ने मुझे जानकारी दी कि अवध बिहारी बाबू ज्यादा लाचार होते जा रहे हैं। उनके मेरूदण्ड (रीढ़ की हड्डी) में गड़बड़ी है। यह अक्तूबर' 07 की बात होगी।
एस एन प्रसाद अपनी बेटियों से मिलने हजारीबाग-रांची जा रहे थे तो उनके पते पर उनसे वे मिलने गए थे। अवध बिहारी बाबू अपनी बेटी के घर शास्त्रीनगर आ गए थे। मुझे भी उन्होंने शास्त्रीनगरवाला पता बतलाया था। पर मेरा दुर्भाग्य है कि मैं उनसे दुबारे नहीं मिल सका।
अब वीरपुर में उनसे जुड़ने के दिनों और खास-खास अवसर पर हमारे उनके बीच बढ़ती निकटता को याद करता हूं।
जिन दिनों वे सरकारी सेवा में कार्यरत थे उसी समय से मेरा उनके क्वार्टर और कार्यालय में आने-जाने का सिलसिला जारी था। घनिष्टता बढ़ने का एक कारण यह भी हुआ कि जहां मेरा कामत है वहां मुख्य सड़क से जाने के समय पहले उनकी जमीन सड़क की दोनों ओर मिलती थी। मेरे कामत का सिलसिला जमा हुआ था।
खेती-बारी संबंधी राय-मशवरा वे मुझसे लिया करते थे। अक्सर वे अपनी जमीन की फसल देखने स्कूटर से जाया करते थे। एक बार मेरे आवास के पास ही वे दुर्घटनाग्रस्त हो गए। उनका पांव टूट गया था। उपचार के बाद वे लंगड़ाने लगे। उससे फायदा यह हुआ कि उन्हें 'अपंग' का एक सर्टिफिकेट मिल गया। उसका लाभ भी वे उठाने लगे।
अवध बिहारी बाबू के रिटायर करने के बाद हमारी और उनकी निकटता बढ़ने लगी। वे होमियोपैथी के अच्छे जानकार थे। हम दोनों होमियोपैथ और आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में विश्वास रखते हैं। अक्सर वे मेरे घर पर जब आते थे तब कोई न कोई नुस्खा मेरे लिए या धर्मपत्नी के लिए लिख दिया करते थे। उनके मुताबिक दवा सेवन करने से लाभान्वित भी हमलोग हुए हैं।
नौकरी से रिटायर करने के बाद मुझे अपने पोख्ता घर की नींव देनी थी। मेरे छोटे भाई ने चार कमरों के मकान का प्राक्कलन बनाकर भेजा था। उसकी नींव दिलवानी थी। बैसाख का महीना चल रहा था। उस समय अवध बिहारी बाबू एक राज मिस्त्री और लेबर लेकर आये और दिन भर तेज धूप में खड़ा होकर नींव खोदवाने के समय मौजूद रहे। आज उसी घर में हम बाल बच्चों के साथ रहते हैं।
बागवानी और पेड़-पौधा लगाने का शौक अवध बिहारी बाबू में था। उन्होंने भी रिटायरमेंट के बाद कोशी कॉलोनी के जस्ट सटे पश्चिमी रोड के किनारे अपने पोख्ता मकान में हाथ लगाया था। पर उनका घर अधूरा रह गया। सरकारी मकान को खाली करने का दबाव उन पर बढ़ता गया। अत: निर्माणाधीन निजी मकान में रहने चले गए थे।
उनके बाल-बच्चों की बात जहां तक है, उन्हें तीन बेटे और तीन बेटियां हैं। बड़ा बेटा इलाहाबाद में रस-बस गया है। अवध बिहारी बाबू के साथ कोई खास सरोकार नहीं रहता था। दूसरा बेटा काबिल नहीं बन पाया। उसकी औलाद की परवरिश इन्हें ही करनी पड़ती थी। तीन-तीन बेटियों की शादी करने में ही अर्जित जमीन उनकी बिक गई। लड़कियों की शादियों से वे निपट चुके थे। यहां-वहां करने में वे टूट चुके थे।
अपने मकान के आगे वे फलदार वृक्षों में अमरूद, आम और अनार लगा चुके थे। मेन रोड से अपने घर तक पहुंचने का एप्रोच रास्ता उनका मिट्टी का है। दोनों ओर मौसमी फूल लगा रहता है।
मैं अपने अहाते में कुछ आम के कलम लगा चुका हूं। वे फल देने लगे हैं। अमरूद और लीची के पेड़ भी हैं।
जिन फलों का सीजन होता, उस समय कभी साइकिल से, भूलते-भटकते या समय देकर आते तो उनसे बातें हुआ करती थीं। और पके फलों का आस्वाद भी लिया करते थे।
वीरपुर में कोशी कॉलोनी में उनके घर के पीछे एक घर पड़ता है। उनके यहां अक्सर जब जाता रहता हूं और अपने घर में वे मिल जाते थे, तो मुझे एक बार कुछ नाश्ता या चाय अवश्य पिलाया करते थे। उनके बच्चों से भी बातें होती थीं।
आज वे नहीं रहे। उनके साथ गुजरे जमाने की बातें, मेरी स्मृतियों में आती-जाती रहेंगीं। खासकर अभी जो एक कहानी-संग्रह 'मझाधार' मेरा आ रहा है। अब उस पर बेबाक एक भाई की टिप्पणी नहीं मिलेगी। उन्हें अपनी नई किताब भेंट किया करता था। उसका मूल्य देखकर वे मना करने पर भी मेरे पॉकेट में उसके समतुल्य मूल्य की राशि डाल दिया करते थे। अब वह जाता रहा।
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