Saturday, February 13, 2010

डीह की तलाश में

नयागांव एक छोटा-सा कस्बा जैसा हो गया है। हाजीपुर और छपरा के बीच सोनपुर के पास, वहां दादा का मिट्टी का घर था। वहां की बचपन की बातें और उसका स्वरूप अभी भी आंखों में तौर जाता है। उन दिनों वह गांव जौसा था। सरयू नदी के किनारे बटोहिया के कवि रघुवीर नारायण वहीं के थे। यह बात बीसवीं सदी के चालीस के दशक की है। छपरा से सुबह ग्यारह बजे चला था। ठौर-ठिकाना का पता लगा लिया था। कहां उतरना है, वहां पहुंचने पर किस से संपर्क करना है।
नयागांव थाने के पास उतरते ही विजय सिंह से भेंट हो गई। उनसे अपना दुख-दर्द और अपनी मंशा बताई कि मुझे आप देख ही रहे हैं। पता लगाने आया हूं। मेरा डीह सुरक्षित है या नहीं। उन्हें उसका ठौर-ठिकाना बता दिया। हम दोनों पूछते हुए उस स्थान पर पहुंचे, जहां कभी मेरे दादा का घर था। वह डीह में तब्दील हो चुका था। उसे सुरक्षित पाया। तत्काल जानकारी मिली कि किसी की जोत में है यह डीह। वह कहता है कि मैंने इसे जमीनवाले से खरीद ली है।
इतनी जानकारी लेकर मेन रोड पर लौट आया। छपरा लौटना मुनासिब समझा। जाड़े का मौसम था। 2 दिसंबर 2007 की संया गहराने लगी। मेन रोड पर विजय सिंह छपरा जानेवाली बसों को रूकवाते रहे। किसी ने भी बस नहीं रोकी। मैं पशोपेश की स्थिति में था, जिन से आज मेरा परिचय हुआ उनके यहां रात में टिकना मुनासिब नहीं लगा। मुझे एक बात की चिंता मन में लगी हुई थी कि छपरा बेटी के घर में और उसके अहाते में सभी घर के लोग बारात चले गए हैं। अत: मुझे छपरा लौट जाना चाहिए। मैंने विजय सिंह से रेल गाड़ी का समय पूछा। बाबू साहेब ने कहा, संध्‍या 6.30 बजे छपरा की गाड़ी मिलेगी। सोचा दो-तीन घंटे में ही ट्रेन से छपरा पहुंच जाऊंगा। करीब 10 बजे रात में। उनसे छुट्टी मांगी, बाबू साहब ने कहा, 'दुआर पर चलीं, कम से कम चाय तो पीलीं।' उनका आग्रह टाल नहीं सका। चाय पीकर नयागांव रेलवे स्टेशन की ओर भागा। नयागांव स्टेशन के प्लेटफार्म की ऊंचाई और सीढ़ियों को देखकर मेरा सिर चकरा गया। चढ़ने में अपने का अक्षम पाया तो अगल-बगल झांकने लगा। एक नौजवान को ऊपर चढ़ते देखा, कहा बेटा मुझे भी मदद करो। उसने मेरा हाथ पकड़ा और मैं ऊपर आ गया।
पूरब-पश्चिम से गाड़ियां आती-जाती रहीं। छपरा की ओर जानेवाली रेलगाड़ी के इंतजार में मैं बौठा रहा। बेंच पर बौठा था बुकिंग ऑफिस के सामने। बिजली गुम थी। एक झपकी आ गई, आंखें खुलीं, तो देखा छपरा जानेवाली गाड़ी लगी है। टिकट कटाया, दौड़कर गाड़ी की ओर बढ़ता गया। गाड़ी ससर रही थी। दो जनों ने मुझे डब्बे के अंदर खींच लिया।
पसिंजर गाड़ी थी। रूक-रूक कर बढ़ रही थी। छपरा पहुंचते-पहुंचते 12 बजे रात का समय हो गया। बाहर कोई रिक्शा नहीं मिला। सड़क पर बिजली नहीं थी। उस रात घनघोर लगन था। जहां-तहां रास्ते में बारात पार्टी की रोशनी मिलती गई। गिरते-पड़ते बेटी के घर की ओर कदम बढ़ाते जा रहा था। इक्के-दुक्के लोग भी मिलते गए। आखिर बेटी के दरवाजे पर पहुंच गया। पुकारता रहा, चिल्लाता रहा। गेट बंद था। अगल-बगल के लोग जग गए। सोचा पास के घर चला जाऊं। गनीमत हुई कि बेटी जगी, धर्मपत्नी भी जगीं। मैं घर के भीतर आया। बेटी ने घर का दरवाजा बंद किया। दोनों में किसी ने खाने-पीने के बारे में नहीं पूछा। उनके तेवर चढ़े थे। पर यह कहा, 'जहां गए थे, वहीं क्यों नहीं रह गए।' मैं उन्हें यह नहीं कह सका कि तुम दोनों अकेली थीं इस कारण वहां नहीं रूका।
मुझे ड्राइंग रूम में छोड़कर अपने कमरे में दोनों चली गईं। मैं अवाक् रहा। टेबुल पर बिस्कुट पड़े थे। कुछ खाया, पानी पीकर सो गया।
सोचता रहा, इन दिनों विदेशों से अपने-अपने पूर्वजों की तलाश में प्रवासी भारतीय आने लगे हैं। उनका पता मिलने पर वे लोग जितना इतराते हैं, उसी तरह की खुशियां मेरे दिल-दिमाग पर तैरती रहीं। उस रात मैं अपनी खुशियों को बांट नहीं सका कि हमारा डीह मिल गया। और वह सुरक्षित है। #

No comments: