Monday, March 30, 2009

नया विहान

आगे पीछे
जाना है
सब को
क्या करेंगे ?
धराधाम पर
जब तक हैं
लुटाते चलें
स्नेह, प्रेम
सद्भावना
निःस्वार्थ सेवा
करते रहें
बिना मुंह वालों को
बोलना सिखावें
चलना सिखावें
कर्मठ बनावें
मुंहताज बनकर
वे न जियें
धोखा न खायें
जैसा होता रहा है।
आगे दोहन न हो।
बहुत हुआ।
इंतजार करें
स्वर्णिम विहान का
देहरी पर।

1 comment:

संगीता पुरी said...

बढिया विचारों से युक्‍त सुंदर रचना ...