Wednesday, April 14, 2010

बहतर वर्ष पहले की एक ग्रामबाला

   मैं अभी अठासी के उत्तराद्ध मैं हूं। कल तक मैं नकारता रहा, कोई मुझे बूढ़ा ना कहे। किन्‍तु अब एहसास हो रहा है। एक सच को क्‍यों नकारता आया। शायद इसलिये तो नहीं कि मेरे दिल में बुलन्‍दी है। बराबर लिखना-पढ़ना चलता रहता है।

   जिन दिनों की कर रहा हूं। उस समय मैं अपनी दादी के साथ रहता था। चम्‍पानगर में। सुखराज राय हाई स्‍कूल, नाथनगर भागलपुर का सातवां क्‍लास का विद्यार्थी था। 1937 ई का जमाना था। अंगिका मैं 'नैना भुटका' या 'नूनू' छोटे बच्‍चों को कहा जाता है। दादी ने मुझे कहा, 'रे नूनू, रामफल गंगोता को बुलालाओ। मोहनपुर दियारा में दादी की जमीन गंगशिकस्‍त हो गई थी, वह बाहर हुई थी। रामफल खेती का देखभाल करता था। फतेहपुर में नाव मिलती थी। रविवार का दिन था। सूर्योदय के पहले दादी ने जगा दिया। चैत का महीना था। बासन्‍ती बयार चल रही थी। पौ फट रहा था। गंगा नदी तट पर मैं पहुंच गया। तट पर नाव लगी थी। नाव पर बैठ गया। इक्‍के-दुक्‍के लोग नाव पकड़ने आ रहे थे। उधर पूरब दिशा में मेरी नजर गई। सूरज की लाल लाल किरणें प्रवहमान गंगा के निर्मल जल पर झिलमिलाती देख रही थी। नाव खुलने-खुलने पर थी। तभी एक ग्रामबाला बेतहाशा दौड़ती आ रही थी। उसके सिर पर छिट्टा था। शायद घास लाने के लिए निकली थी। उस समय उसे अपने शरीर बदन के कपड़ों की कोई सुधि नहीं थी। उसका रूप रंग उलझा हुआ बाल। साड़ी में लिपटी, खुला बदन, फड़फड़ाता आंचल, अंगिया न ब्‍लाउज। बदन में उठान हो चुका था।

   बहतर वर्ष बाद। उसकी वह सूरत, उसकी खूबसूरती, जो मैंने देखी थी। मेरे शरीर में उस समय कोई काम वासना का संचार नहीं हुआ था। पर मेरी आंखों के आगे आज भी वह दृश्‍य, कभी-कभी छा जाता है, तो बड़ा अच्‍छा लगता है। उस खूबसूरती का बखान आज इस उम्र में कर रहा हूं। आज भी मेरी मनोदशा वही है। आपको कैसा लग रहा है।. 

2 comments:

विवेक सिंह said...

हमें ऐसा लग रहा है जैसे हमने युग देख लिए हों । आपकी लेखन शैली लाजबाब है । दृश्य आँखों के सामने लाकर रख दिया ।

Amitraghat said...

"कुछ स्मृतियाँ,कुछ दृश्य कुछ छवियाँ ताउम्र याद रहते हैं शायद भोलेपन के कारण...और फिर शरीर बूढ़ा होता है मन नहीं....बहुत अच्छी पोस्ट..."