शंभू बाबू को जानकारी मिली कि उनके बेटे की पोस्टिंग बिहारशरीफ हो गई है, तो उनहें खुशी हुई। इस मानी में कि उनके पिता पुलिस विभाग में एस.सी. के पोस्ट पर अस्सी बरस पहले बृटिश शासनकाल के जमाने में आये थे। उस समय शंभू बाबू की उम्र आठ वर्ष की थी। पर उन दिनों की कुछ प्रमुख घटनाओं उनके दिमाग में तरोताजा थीं जिन्हें आज 2004 में उन स्थलों की तलाश में वे गये, तो सबकुछ बदला-बदला दीखा। जैसा कि जिस क्वार्टर में अस्सी बरस पहले वे माता-पिता के साथ रह चुके थे, उसकी पहचान नहीं कर पाए। दूसरी याद में मखदूम साहब की दरगाह का परिवार उन्हें बदला-बदला दीखा। बचपन की आंखों से शंभू बाबू ने जैसा देखा-सुना था, आज का मंजर उन्हें कुद और ही दीखा। मकबरा में प्रवेश करने के पहले रास्ते के दोनों तरफ छोटे-बड़े कब्र भरे पड़े थे।
भीतर दरगाह में प्रवेश करने के बाद वहां के रस्मों-रिवाज के मुताबिक उन्हें पहले गोशुल (हाथ-पांव धोने के लिए नल पर जाना पड़ा।)
गोशुल करके मखदूम साहब के कब्र के पास आने पर वहां ड्यूटी पर तैनात एक शख्स ने दोआ मांगने के लिए तौर तरीकों की उन्हें जानकारी दी। पर शंभू बाबू लाचार से दिखे क्योंकि आज उनकी उम्र तो नब्बे में चल रही है।
दोआ मांगने के नाम पर शंभू बाबू ने कहा, मैं क्या मांगू।. खुदा ने हमें सबकुछ से भरपूर कर दिया है।
जिस रिक्शा से बेटे के बंगले से मखदूम साहब के दरगाह पर गए थे उसी रिक्शे से शंभू बाबू लौट आये। चपरासी उन्हें पहुंचाकर चला गया। लौटने तक दोपहर हो गया था। गरम-गरम हवाएं चलने लगीं। मई का महीना चल रहा था। बिजली चली गई थी। उन पर हाथ का बेना बहू झलने लगी। फिर थोड़ी देर बाद बहू ने खाना खिला दिया।
शंभू बाबू ने बहू से कहा, 'जरा बेटा से कहो, बाबूजी कल चले जाएंगे। वे उनके बैंक में आना चाहते हैं।'
शंभू बाबू के कहने के मुताबिक बहू ने फोन किया। पर उधर से जवाब मिला, 'बाबूजी को कहो आराम करें। तपिश में बैंक कहां आएंगे!'
पर शंभू बाबू को यह बात लग गई। उनका छोटा भाई जो इलाहाबाद बैंक में चालीस बरस पहले पटना की नई शाखा के मैनेजर के बतौर उनकी पोस्टिंग हुई थी। उस समय शंभू बाबू को छोटे भाई ने बैंक में बुलाया था, तो वहां जाने पर भाई ने अपने चेम्बर में उन्हें बिठाया था। बारी-बारी से उनके आतहत के सारे स्टॉफ को उन्होंने उनसे परिचय कराया था। तो बेटा ने टका-सा जवाब क्यों दे दिया और अपने बूढ़े बाप को बुलाकर उन्हें क्या शर्मिंदगी का एहसास होता। इस कारण तो नहीं ऐसा कुछ हुआ है।
शंभू बाबू मन ही मन झुंझला उठे। अपने बुढ़ापे के शरीर के डील-डौल पर विचार करने लगे। सोचने लगे कि मैं थोड़ा झुक गया हूं। अंजर-पंजर ढीला ढीला सा हो गया है। झुर्रियां पड़ गई है। इस कारण से तो बेटा ने अपने बैंक में उन्हें नहीं बुलाया और इधर शंभू ने सोचा था कि वह अपने चेम्बर में बिठाएगा और बारी-बारी से अपने स्टॉफ से परिचय कराएगा, जैसा कि उनके भाई ने चालीस बरस पहले कर दिखाया था।
शंभू बाबू के सोचने का तार टूटा नहीं था। वे मुंबई छोटे बेटा के यहां गए थे। एक दिन ऐसा हुआ कि वे ड्राइंगरूम में बैठकर अखबार पढ़ रहे थे। पोती ने उन्हें आकर कहा, 'बाबा आप अंदर के कमरे में चले जाएं। कुछ लोग पापा से मिलने आ रहे हैं।'
शंभू बाबू का ताना-बाना ऐसा ही कुछ चल रहा था। बिजली आ गई। पंखा चलने लगा। उन्हें नींद आ गई।