आगे पीछे
जाना है
सब को
क्या करेंगे ?
धराधाम पर
जब तक हैं
लुटाते चलें
स्नेह, प्रेम
सद्भावना
निःस्वार्थ सेवा
करते रहें
बिना मुंह वालों को
बोलना सिखावें
चलना सिखावें
कर्मठ बनावें
मुंहताज बनकर
वे न जियें
धोखा न खायें
जैसा होता रहा है।
आगे दोहन न हो।
बहुत हुआ।
इंतजार करें
स्वर्णिम विहान का
देहरी पर।
Monday, March 30, 2009
Friday, March 20, 2009
मुंबई के काले कबूतर
आकाश से बातें करती चैदह माला की धीरज रेसीडेंसी चार खंडों में फैली है। हर लोर पर चार लैट हैं। हर माला पर खिड़िकियां हैं] छज्जे हैं। सामने का वेनस दस माला में सिमटा है। दोनों पर काले कबूतरों का बसेरा अजीबोगरीब-सा लगता है। साफ होते ही आसपास की खिड़कियों पर बैठे कबूतरों की इन हरकतों पर शायद ही कोई तवज्जो देता हो! आमन-सामने की खिड़कियों पर कबूतरों का आना-जाना] लड़ना-झगड़ना चालू हो जाता है। फिर हर दिन सांझ होते ही ये कबूतर जहां-तहां] जैसे-तैसे हर माला की खिड़कियों] छज्जों पर पनाह ले लेते हैं। रात में इनकी हरकतें नहीं होतीं। इन पर कोई अटैक भी नहीं होता। खिड़कियों पर रखे हुए ए. सी. की अग-बगल इनके पलते छोटे बच्चों को आसानी से पकड़ा जा सकता है। किन्तु ऐसा यहां पसंद नहीं है। अतः उड़न्तू होते ही उन बच्चों के मां-बाप उसे भगा दिया करते हैं। इसका चश्मदीद गवाह मैं खुद हूं। जिस कमरे में रहता हूं। वहां दो जोड़ी कबूतरों को उड़ते देखा है।
ये कबूतर दाना-पानी के लिए यहां नहीं उतरते। यहां ये रह तो लेते हैं] ठीक वैसे ही जैसे फुटपाथ पर गुजर करने वाले सर्वहारा वर्ग। समूह में ये दाना-पानी के लिए चले जाते हैं जिसका इन्हें पता होता है। सुना है] मुंबई में कहीं-कहीं इन कबूतरों के लिए] आगार बनाये गए हैं। खुले स्थलों पर ऐसे लोग भी हैं जो पर्याप्त मात्रा में दाना छिड़क कर आगे बढ़ जाते हैं। इण्डिया गेट के पास] ताज के सामने काले कबूतर ऐसे दीख पड़ते हैं] जैसे काली चादर बिछी हुई है।
वेनस और धीरज के बीच खुला आकाश है। उसी के बीच समूह में वे तब भागते हैं जब यदा-कदा चिल्ह आकर मंडराने लगता है। चिल्ह शिकार की तलाश में आता है] उनके पीछे-पीछे कौअे भी आ जाते हैं] उन अंडों और छोटे बच्चों को अपने लोल में लेकर भागते हैं। वहीं चिल्ह उन छोटे बच्चों और ठिकानों पर चोट करता है और शिकार को चंगुल में लेकर भाग जाता है।
काले कौअे समूह में सुबह-सुबह खिड़कियों पर चोट करते हैं। कबूतरों के साथ जंग छिड़ जाता है। कबूतर घोघ फुलाकर नाचते हैं और अपनी आवाज में कहते हैं भागो भागो। कौअे भाग जाते हैं। किन्तु जब इकट्ठे निकलते हैं कबूतर] तो अंडा या बिलकुल छोटा बच्चा इनका लेकर कौअे भाग जाते हैं। गनीमत है, इन कबूतरों को बर्ड लू नहीं होता] वैसा होता तो लैटों में रहनेवालों का हश्र क्या होता\ मुंबई के गगनचुम्बी अट्टालिकाओं को देखें। काले कबूतर मिल जायेंगे। इन कंक्रीट के जंगलों में ही तो काले कबूतरों का बसेरा है।
ये कबूतर दाना-पानी के लिए यहां नहीं उतरते। यहां ये रह तो लेते हैं] ठीक वैसे ही जैसे फुटपाथ पर गुजर करने वाले सर्वहारा वर्ग। समूह में ये दाना-पानी के लिए चले जाते हैं जिसका इन्हें पता होता है। सुना है] मुंबई में कहीं-कहीं इन कबूतरों के लिए] आगार बनाये गए हैं। खुले स्थलों पर ऐसे लोग भी हैं जो पर्याप्त मात्रा में दाना छिड़क कर आगे बढ़ जाते हैं। इण्डिया गेट के पास] ताज के सामने काले कबूतर ऐसे दीख पड़ते हैं] जैसे काली चादर बिछी हुई है।
वेनस और धीरज के बीच खुला आकाश है। उसी के बीच समूह में वे तब भागते हैं जब यदा-कदा चिल्ह आकर मंडराने लगता है। चिल्ह शिकार की तलाश में आता है] उनके पीछे-पीछे कौअे भी आ जाते हैं] उन अंडों और छोटे बच्चों को अपने लोल में लेकर भागते हैं। वहीं चिल्ह उन छोटे बच्चों और ठिकानों पर चोट करता है और शिकार को चंगुल में लेकर भाग जाता है।
काले कौअे समूह में सुबह-सुबह खिड़कियों पर चोट करते हैं। कबूतरों के साथ जंग छिड़ जाता है। कबूतर घोघ फुलाकर नाचते हैं और अपनी आवाज में कहते हैं भागो भागो। कौअे भाग जाते हैं। किन्तु जब इकट्ठे निकलते हैं कबूतर] तो अंडा या बिलकुल छोटा बच्चा इनका लेकर कौअे भाग जाते हैं। गनीमत है, इन कबूतरों को बर्ड लू नहीं होता] वैसा होता तो लैटों में रहनेवालों का हश्र क्या होता\ मुंबई के गगनचुम्बी अट्टालिकाओं को देखें। काले कबूतर मिल जायेंगे। इन कंक्रीट के जंगलों में ही तो काले कबूतरों का बसेरा है।
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