Monday, March 3, 2008

मेरा मन अब भी

ज़िंदगी एक धरोहर है
अमूल्य निधि है
इस पर अधिकार क्या सिर्फ़ मेरा ही है?
जैसे मैं चाहूँ
वैसे मनमानापन
इसके साथ करता रहूँ।
लगता है
सब कुछ कल की बात है
ज़िंदगी का चतुर्थांश
तो माँ-बाप के साया में
पला बढ़ा
आदमी बनाने का श्रेय उन्हीं का था।
उनके लिए
हमने क्या किया?
प्रतिदान तो उनने
चाहा नहीं
इस लम्बी ज़िंदगी में
बहुतों से संग छूट गया
कुछ रूठ गए
कुछ भगवान को प्यारे हो गए
आज अकेले खड़ा हूँ
मंजिल दिखायी देती है
चौथेपन की ज़िंदगी का
क्या भरोसा!
कब चली जाए
क्या अभी मुझे
सपना देखना चाहिए
कि यह कर लूँ!वह भी कर लूँ!
चाहत की कोई सीमा नहीं होती।

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